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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
    ऋषिः - देवश्रवा यामायनः देवता - सरण्यूः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वष्टा॑ दुहि॒त्रे व॑ह॒तुं कृ॑णो॒तीती॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ समे॑ति । य॒मस्य॑ मा॒ता प॑र्यु॒ह्यमा॑ना म॒हो जा॒या विव॑स्वतो ननाश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टा॑ । दु॒हि॒त्रे । व॒ह॒तुम् । कृ॒णो॒ति॒ । इति॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । सम् । ए॒ति॒ । य॒मस्य॑ । मा॒ता । प॒रि॒ऽउ॒ह्यमा॑ना । म॒हः । जा॒या । विव॑वस्वतः । न॒ना॒श॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टा दुहित्रे वहतुं कृणोतीतीदं विश्वं भुवनं समेति । यमस्य माता पर्युह्यमाना महो जाया विवस्वतो ननाश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टा । दुहित्रे । वहतुम् । कृणोति । इति । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । सम् । एति । यमस्य । माता । परिऽउह्यमाना । महः । जाया । विववस्वतः । ननाश ॥ १०.१७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] 'त्वष्टा' परमात्मा का नाम है, वे प्रभु [ त्वक्षतेर्वा स्याद् गतिकर्मणः ] सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले व संसार रूप फलक के बढ़ई हैं, तथा [त्विषेर्ण स्याद् दीप्तिकर्मणः] वे प्रभु दीप्तिमय हैं, ज्ञानदीप्ति से परिपूर्ण हैं । [२] इस त्वष्टा की 'दुहिता' [दुह प्रपूरणे] 'वेद' है जो कि अपने पाठक के जीवन का पूरण करनेवाली है। इसे ही द्वितीय मन्त्र में 'सरण्यू' नाम दिया गया है। यह 'सर' = गति [सृ गतौ] तथा 'ण'ज्ञान, इन दोनों को [यु- मिश्रण] हमारे साथ जोड़नेवाली है । [३] इसका अध्ययन करना ही इसके साथ परिणीत होना है। इसके साथ परिणीत होनेवाला 'विवस्वान्'=ज्ञान की किरणों वाला है। ज्ञान की किरणों वाला ज्ञानी पुरुष 'विवस्वान्' है, तो प्रभु 'महान् विवस्वान्' हैं । जैसे आत्मा-परमात्मा ये शब्द जीव व ईश्वर के वाचक हैं, उसी प्रकार यहाँ विवस्वान् तथा महान् विवस्वान् शब्द हैं। यह वेद वाणी उस 'महान् विवस्वान्' प्रभु की जाया= प्रादुर्भाव करनेवाली है, 'सर्वेवेदाः यत् पदम् आमनन्ति' । उस प्रभु के प्रकाश को करती हुई यह अज्ञानान्धकार को नष्ट कर देती है। [४] यह त्वष्टा की दुहिता [अश्विनौ] का भरण करती है, इसी से यह 'यम'=twins= युगल की माता कहलाती है यह युगल 'नासत्य व दस्त्र' हैं । वेदवाणी का परिणाम जीवन में यही होता है कि न+असत्य-असत्य का अंश नष्ट हो जाता है, 'दसु उपक्षये' और सारी बुराइयों व रोगों का विध्वंस हो जाता है। 'अश्विनौ' का अर्थ 'प्राणापान' भी है 'प्राण' असत्य को नष्ट करता है तो 'अपान' सब बुराइयों को दूर करता है । [५] त्वष्टा की इस दुहिता के विवाह के समय सम्पूर्ण भुवन उपस्थित होता है अर्थात् मनुष्य को सम्पूर्ण भुवन का ज्ञान देनेवाली यह वेदवाणी होती है, 'वेद' सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ तो है ही । [६] मन्त्र में यह सब इन शब्दों में कहा गया है कि- (त्वष्टा) = प्रभु (दुहित्रे) = दुहिता के लिये (वहतुं) = विवाह को (कृणोति) = रचते हैं । (इति) = इस कारण (इदं विश्वं भुवनं समेति) = यह सम्पूर्ण भुवन एकत्र उपस्थित होता है । (यमस्य माता) = यह यम को, युगल को जन्म देनेवाली (पर्युह्यमाना) = जब परिणीत होती है तो वह (महो विवस्वतः जाया) = उस महान् विवस्वान् प्रभु का प्रादुर्भाव करनेवाली होती है। इस प्रादुर्भाव के होने पर (ननाश) = सब अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है ।

    भावार्थ - भावार्थ - हम वेदज्ञान को प्राप्त करें जिससे प्रभु दर्शन के अधिकारी हों और अपने अज्ञानान्धकार को नष्ट कर सकें ।

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