Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 17 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
    ऋषिः - देवश्रवा यामायनः देवता - सरण्यूः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अपा॑गूहन्न॒मृतां॒ मर्त्ये॑भ्यः कृ॒त्वी सव॑र्णामददु॒र्विव॑स्वते । उ॒ताश्विना॑वभर॒द्यत्तदासी॒दज॑हादु॒ द्वा मि॑थु॒ना स॑र॒ण्यूः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । अ॒गू॒ह॒न् । अ॒मृता॑म् । मर्त्ये॑भ्यः । कृ॒त्वी । सऽव॑र्णाम् । अ॒द॒दुः॒ । विव॑स्वते । उ॒त । अ॒श्विनौ॑ । अ॒भ॒र॒त् । यत् । तत् । आसी॑त् । अज॑हात् । ऊँ॒ इति॑ । द्वा । मि॒थु॒ना । स॒र॒ण्यूः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपागूहन्नमृतां मर्त्येभ्यः कृत्वी सवर्णामददुर्विवस्वते । उताश्विनावभरद्यत्तदासीदजहादु द्वा मिथुना सरण्यूः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । अगूहन् । अमृताम् । मर्त्येभ्यः । कृत्वी । सऽवर्णाम् । अददुः । विवस्वते । उत । अश्विनौ । अभरत् । यत् । तत् । आसीत् । अजहात् । ऊँ इति । द्वा । मिथुना । सरण्यूः ॥ १०.१७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] गत मन्त्र के अनुसार वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाला सब देवों के ज्ञान को प्राप्त करने के कारण 'देवश्रवाः ' कहलाता है 'देवेषु श्रवे यस्य' । यह संयत जीवनवाला बनने से 'यामायन'-यम का पुत्र कहा गया है। यह 'देवश्रवा यामायन' ही प्रस्तुत सूक्त का ऋषि है। यह कहता है कि इस (अमृताम्) = कभी नष्ट न होनेवाली अथवा मृत्यु से बचानेवाली इस वेदवाणी को (मर्त्येभ्यः) = वासनाओं से आक्रान्त होकर विषयों के पीछे मरनेवाले मनुष्यों से (अपागूहन्) = दूर छिपाकर रखा जाता है । (अमताम्) = इसे प्राप्त नहीं कर सकता । निरुक्त के परिशिष्ट में हम पढ़ते हैं कि 'विद्या' ब्राह्मण के पास आई और कहा कि मुझे सुरक्षित करो, मैं तुम्हारा कोश हूँ। मुझे 'असूयक- अनृजु व अयति' [असंयमी] पुरुष के लिये न देना जिससे मैं वीर्यवती होऊँ । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह अमृत वेदवाणी असंयत जीवन वाले पुरुष को प्राप्त नहीं होती । [२] इस वेदवाणी को (सवर्णाम् कृत्वी) = प्रभु वर्णन युक्त करके (विवस्वते) = ज्ञानी पुरुष के लिये (अददुः) = देते हैं । 'सर्वे वेदाः यत् पदम् आमनन्ति' इन शब्दों के अनुसार यह वेदवाणी प्रभु के वर्णन से युक्त है। [३] (उत) = और यह वेदवाणी (अश्विनौ) = प्राणापान का (अभरत्) = पोषण करती है । 'असुनीति' प्राणविद्या का प्रतिपादन करनेवाली यह वेदवाणी प्राणापान का पोषण क्यों न करेगी ? [४] (यत्) = जो (तत्) = वह प्राणापान का पोषण करनेवाली अमृता वेदवाणी (आसीत्) = थी, अर्थात् जब इसने हमारे प्राणापान की शक्तियों का वर्धन किया तो (सरण्यूः) = ज्ञान व कर्म से हमारा मेल करनेवाली इस वेदवाणी ने (द्वा मिथुना) = दो युगलभूत 'नासत्य व दस्र' को (उ) = निश्चय से (अजहात्) = जन्म दिया। ज्ञान ही नासत्य है, कर्म ही दस्र है। ज्ञान से सत्य का दर्शन होता है और कर्म से सब बुराइयों का संहार [दसु उपक्षये] होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु कृपा से हमारा इस 'सरण्यू' नाम वाली वेदवाणी से सम्बन्ध हो और हमारे जीवन में सत्य व पवित्रता का संचार हो ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top