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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 176 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 176/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सूनुरार्भवः देवता - ऋभवः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्र सू॒नव॑ ऋभू॒णां बृ॒हन्न॑वन्त वृ॒जना॑ । क्षामा॒ ये वि॒श्वधा॑य॒सोऽश्न॑न्धे॒नुं न मा॒तर॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । सू॒नवः॑ । ऋ॒भू॒णाम् । बृ॒हत् । न॒व॒न्त॒ । वृ॒जना॑ । क्षाम॑ । ये । वि॒श्वऽधा॑यसः । अश्न॑न् । धे॒नुम् । न । मा॒तर॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सूनव ऋभूणां बृहन्नवन्त वृजना । क्षामा ये विश्वधायसोऽश्नन्धेनुं न मातरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । सूनवः । ऋभूणाम् । बृहत् । नवन्त । वृजना । क्षाम । ये । विश्वऽधायसः । अश्नन् । धेनुम् । न । मातरम् ॥ १०.१७६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 176; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (ऋभूणां सूनवः) = [उरु भान्ति इति ऋभवः] ऋभुओं के सून, अर्थात् खूब ही चमकने- वाले ये लोग (बृहत्) = खूब (वृजना) = बलों को (प्र नवन्त) = प्रकर्षेण प्राप्त होते हैं। प्रभु से प्रेरणा को प्राप्त करके ये ज्ञान के मार्ग पर चलते हैं और इस प्रकार जीवन में व्यसनों से बचकर खूब शक्तिशाली बनते हैं। [२] ये ऋभु वे हैं (ये) = जो (विश्वधायसः) = सब के धारक होते हुए (मातरं क्षां आ अश्नन्) = इस मातृ तुल्य पृथिवी से ही अपने भोजन को प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार (न) = जैसे कि बछड़े (मातरं धेनुम्) = अपनी मातृभूत गौ से गोदुग्धरूप भोजन को प्राप्त करते हैं। वस्तुतः ऋभुओं का भोजन पृथिवी से उत्पन्न वानस्पतिक पदार्थ ही हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - ऋभु वासनाओं से बचकर बड़ी शक्ति का संग्रह करते हैं और वानस्पतिक भोजन को करते हुए सबका धारण करनेवाले होते हैं ।

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