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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 176/ मन्त्र 2
प्र दे॒वं दे॒व्या धि॒या भर॑ता जा॒तवे॑दसम् । ह॒व्या नो॑ वक्षदानु॒षक् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । दे॒वम् । दे॒व्या । धि॒या । भर॑त । जा॒तऽवे॑दसम् । ह॒व्या । नः॒ । व॒क्ष॒त् । आनु॒षक् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र देवं देव्या धिया भरता जातवेदसम् । हव्या नो वक्षदानुषक् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । देवम् । देव्या । धिया । भरत । जातऽवेदसम् । हव्या । नः । वक्षत् । आनुषक् ॥ १०.१७६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 176; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
विषय - दिव्य बुद्धि से प्रभु-दर्शन
पदार्थ -
[१] (देवम्) = उस प्रकाशमय (जातवेदसम्) = सर्वव्यापक [जाते जाते विद्यते] व सर्वज्ञ [जातं जातं वेति] प्रभु को (देव्या धिया) = प्रकाशमय बुद्धि से (प्र भरत) = अपने हृदय में प्रकर्षेण धारण करो । गत मन्त्र में वर्णित सात्त्विक भोजन से बुद्धि सात्त्विक बनती ही है। यह सात्त्विक बुद्धि प्रभु-दर्शन के अनुकूल होती है । बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर ही प्रभु का दर्शन हुआ करता है । [२] वह प्रभु (न:) = हमारे लिये (आनुषक्) = निरन्तर हव्या हव्यपदार्थों को वक्षत् प्राप्त कराते हैं। जो प्रभु के निर्देश के अनुसार कर्मों में लगे रहते हैं, उनके योगक्षेम का ध्यान प्रभु करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम बुद्धि को प्रकाशमय बनाकर प्रभु का दर्शन करें। प्रभु हमें सब आवश्यक व पवित्र पदार्थों को प्राप्त करायेंगे ।
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