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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 21/ मन्त्र 8
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अग्ने॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषो॒रु प्र॑थयसे बृ॒हत् । अ॒भि॒क्रन्द॑न्वृषायसे॒ वि वो॒ मदे॒ गर्भं॑ दधासि जा॒मिषु॒ विव॑क्षसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ । उ॒रु । प्र॒थ॒य॒से॒ । बृ॒हत् । अ॒भि॒ऽक्रन्द॑न् । वृ॒ष॒ऽय॒से॒ । वि । वः॒ । मदे॑ । गर्भ॑म् । द॒धा॒सि॒ । जा॒मिषु॑ । विव॑क्षसे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने शुक्रेण शोचिषोरु प्रथयसे बृहत् । अभिक्रन्दन्वृषायसे वि वो मदे गर्भं दधासि जामिषु विवक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । शुक्रेण । शोचिषा । उरु । प्रथयसे । बृहत् । अभिऽक्रन्दन् । वृषऽयसे । वि । वः । मदे । गर्भम् । दधासि । जामिषु । विवक्षसे ॥ १०.२१.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 21; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (शुक्रेण शोचिषा) = क्रियामय [शुक गतौ] ज्ञानदीप्ति के द्वारा (उरु) = हृदय की विशालता के साथ तथा (बृहत्) = अंग-प्रत्यंग की शक्ति को वृद्धि के साथ (प्रथयसे) = अपना विस्तार करनेवाला होता है। क्रिया व ज्ञान के समन्वय से इसकी भौतिक व अध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति होती है । 'उरु' अध्यात्म उन्नति का संकेत करता है तो बृहत् = भौतिक उन्नति का । एवं उन्नति में 'अभ्युदय व निः श्रेयस' दोनों का स्थान है। दोनों का समन्वय ही वास्तविक धर्म है 'यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः ' । [२] हे अग्रेणी जीव ! तू (अभिक्रन्दन्) = दिन के प्रारम्भ व अन्त में, अर्थात् दोनों समय उस प्रभु का आह्वान करता हुआ वृषायसे- एक शक्तिशाली पुरुष की तरह आचरण करता है। प्रभु स्मरण से प्रभु की समीपता में यह उसी प्रकार सशक्त बन जाता है जैसे कि माता के अंक में स्थित बालक शक्ति को अनुभव करता है और निर्भीक होता है। [३] हे प्रभो ! (वः) = आपकी प्रति के (विमदे) = विशिष्ट आनन्द के निमित्त यह (गर्भं दधासि) = हिरण्यगर्भ नामक आपका धारण करता है। आप सभी को अपने में धारण करने से 'गर्भ' हैं, यह भक्त आपको धारण करने के लिये यत्नवान् होता है। और इसीलिए (जामिषु) = सब बन्धुओं में (विवक्षसे) = विशिष्ट उन्नति के लिये होता है। वस्तुतः प्रभु का धारण व उपासन हमें मार्गभ्रष्ट होने से बचाता है और हमारी उन्नति का कारण बनता है ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु का उपासन ही सब उन्नतियों का मूल है। प्रभु का उपासक क्रियाशील व ज्ञानी होता है । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि मैं को छोड़कर ही हम प्रभु का वरण कर पाते हैं । [१] प्रभु प्राप्ति के लिये 'करुणार्द्रता, सरलता व त्याग' आवश्यक हैं, [२] प्रभु के सच्चे उपासक लोक-धारण में तत्पर होते हैं, [३] प्रभु का उपासक 'अग्नि, सहसवान् व अमर्त्य' बनने का प्रयत्न करता है, [४] स्थिरचित्तता व आत्मनिरीक्षण के द्वारा हम अग्नि बनते हैं, [५] यज्ञों के द्वारा 'प्रभु उपासन' करके हम कमनीय वसुओं को प्राप्त करते हैं, [६] इन वसुओं को प्राप्त करके हम तेजस्वी व ज्ञानी बनते हैं, [७] क्रियाशील ज्ञानी पुरुष ही तो प्रभु का सच्चा उपासक होता है, [८] यह प्रभु ही हमारा उपास्य हो ।

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