ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पाद्निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
कुह॑ श्रु॒त इन्द्र॒: कस्मि॑न्न॒द्य जने॑ मि॒त्रो न श्रू॑यते । ऋषी॑णां वा॒ यः क्षये॒ गुहा॑ वा॒ चर्कृ॑षे गि॒रा ॥
स्वर सहित पद पाठकुह॑ । श्रु॒तः । इन्द्रः॑ । कस्मि॑न् । अ॒द्य । जने॑ । मि॒त्रः । न । श्रू॒य॒ते॒ । ऋषी॑णाम् । वा॒ । यः । क्षये॑ । गुहा॑ । वा॒ । चर्कृ॑षे । गि॒रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुह श्रुत इन्द्र: कस्मिन्नद्य जने मित्रो न श्रूयते । ऋषीणां वा यः क्षये गुहा वा चर्कृषे गिरा ॥
स्वर रहित पद पाठकुह । श्रुतः । इन्द्रः । कस्मिन् । अद्य । जने । मित्रः । न । श्रूयते । ऋषीणाम् । वा । यः । क्षये । गुहा । वा । चर्कृषे । गिरा ॥ १०.२२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - ऋषियों के घरों में
पदार्थ -
[१] (कुह) = कहाँ (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (श्रुतः) = सुना जाता है। अर्थात् प्रभु की आवाज को कौन-सी योनि में आत्मा सुन पाती है ? (अद्य) = आज (कस्मिन् जने) = किस व्यक्ति में (मित्रो न) = मित्र के समान (श्रूयते) = वह प्रभु सुना जाता है। जैसे एक मित्र की वाणी को हम सुनते हैं उसी प्रकार उस महान् मित्र प्रभु की वाणी को कौन सुनता है ? इस संसार में प्रायः एक मित्र दूसरे मित्र को सलाह देता हुआ झिझकता है, प्रायः दूसरा व्यक्ति अपने मित्र की ठीक सम्मति को सुनने को तैयार भी नहीं होता । प्रभु सलाह तो सदा देते ही हैं, पर प्रायः हम उस सलाह को सुनते नहीं हैं ? [२] ये प्रभु वे हैं (यः वा) = जो कि या तो (ऋषीणां क्षये) = तत्त्वद्रष्टाओं के घरों में (वा) = अथवा (गुहा) = बुद्धि व हृदयदेश में (गिरा) = वाणियों के द्वारा (चर्कृषे) = सदा आकृष्ट किये जाते हैं । अर्थात् प्रभु की वाणी ऋषियों के घरों में सुन पाती है अथवा हृदयदेश में उस प्रभु का ध्यान करनेवाले लोग ही स्तुति द्वारा उस प्रभु को अपनी ओर आकृष्ट करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की वाणी को विरल ही सुननेवाले होते हैं। ऋषियों के गृहों में प्रभु-स्तवन होता है और हृदयदेश में प्रभु ध्यान चलता है।
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