ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
वने॒ न वा॒ यो न्य॑धायि चा॒कञ्छुचि॑र्वां॒ स्तोमो॑ भुरणावजीगः । यस्येदिन्द्र॑: पुरु॒दिने॑षु॒ होता॑ नृ॒णां नर्यो॒ नृत॑मः क्ष॒पावा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठवने॑ । न । वा॒ । यः । नि । अ॒धा॒यि॒ । चा॒कन् । शुचिः॑ । वा॒म् । स्तोमः॑ । भु॒र॒णौ॒ । अ॒जी॒ग॒रिति॑ । यस्य॑ । इत् । इन्द्रः॑ । पु॒रु॒ऽदिने॑षु । होता॑ । नृ॒णाम् । नर्यः॑ । नृऽत॑मः । क्ष॒पाऽवा॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वने न वा यो न्यधायि चाकञ्छुचिर्वां स्तोमो भुरणावजीगः । यस्येदिन्द्र: पुरुदिनेषु होता नृणां नर्यो नृतमः क्षपावान् ॥
स्वर रहित पद पाठवने । न । वा । यः । नि । अधायि । चाकन् । शुचिः । वाम् । स्तोमः । भुरणौ । अजीगरिति । यस्य । इत् । इन्द्रः । पुरुऽदिनेषु । होता । नृणाम् । नर्यः । नृऽतमः । क्षपाऽवान् ॥ १०.२९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - क्षपावान् [संयत भोजनवाला]
पदार्थ -
[१] (यः) = जो मनुष्य (चाकन्) = [कामयमानः ] कामना करता हुआ, चाहता हुआ (वने न) = के समान उस प्रभु में (वा) = निश्चय से (न्यधायि) = स्थापित होता है । उस प्रभु को अपना आधार बनाता है, उसकी उपासना में आनन्द का अनुभव करता है । इसीलिए (शुचिः) = पवित्र जीवनवाला होता है। हम प्रभु से दूर होते हैं, तभी पाप की ओर झुकाववाले होते हैं। प्रभु की समीपता हमारे जीवनों को पवित्र बनाये रखती है। [२] इस पवित्रता व प्रभु के उपासन के लिये ही, हे (भुरणौ) = पालन करनेवाले अश्विनी देवो, प्राणापानो! (वाम्) = आपका (स्तोमः) = स्तवन (अजीगः) = इसको प्राप्त होता है । यह प्राणापान का स्तवन करता हुआ प्राणापान की महिमा को अनुभव करता है और प्राणसाधना में तत्पर होता है। [३] वह मनुष्य (यस्य) = जिसका (इन्द्रः) = परमात्मा (इत्) = ही (पुरुदिनेषु) = बहुसंख्यक दिनों में, उन दिनों में जिनमें कि वह रोगों से अपने शरीर को सुरक्षित करने व मन में किन्हीं भी न्यूनताओं को न आने देने का ध्यान करता है, होता इस जीवनयज्ञ के चलानेवाले हैं। प्रभु कृपा से इस जीवन-यात्रा को पूर्ण होता हुआ देखता है। इसीलिए उसे किसी भी उत्कर्ष का व्यर्थ अभिमान नहीं होता। [४] ऐसा निरभिमानी मनुष्य (नृणां नर्यः) = मनुष्यों में अधिक से अधिक नरहितकारी कर्मों का करनेवाला होता है। (नृतमः) = अत्यन्त उत्तम मनुष्य होता है। ऐसा तब बन पाता जब वह (क्षपावान्) = [क्षप् to fast, to be an abstinent] भोजन में बड़ा संयमी होता है। सब 'शरीर, मन व बुद्धि' की उन्नतियों का मूल भोजन की सात्त्विकता है ।
भावार्थ - भावार्थ- जो भोजन में संयमवाला होता है वह उत्तम मनुष्य बनता है। प्राणसाधना करता हुआ प्रभु में स्थित होता है।
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