ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
प्र ते॑ अ॒स्या उ॒षस॒: प्राप॑रस्या नृ॒तौ स्या॑म॒ नृत॑मस्य नृ॒णाम् । अनु॑ त्रि॒शोक॑: श॒तमाव॑ह॒न्नॄन्कुत्से॑न॒ रथो॒ यो अस॑त्सस॒वान् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । अ॒स्याः । उ॒षसः॑ । प्र । अप॑रस्याः । नृ॒तौ । स्या॒म॒ । नृऽत॑मस्य । नृ॒णाम् । अनु॑ । त्रि॒ऽशोकः॑ । श॒तम् । आ । अ॒व॒ह॒न् । नॄन् । कुत्से॑न । रथः॑ । यः । अस॑त् । स॒स॒ऽवान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते अस्या उषस: प्रापरस्या नृतौ स्याम नृतमस्य नृणाम् । अनु त्रिशोक: शतमावहन्नॄन्कुत्सेन रथो यो असत्ससवान् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ते । अस्याः । उषसः । प्र । अपरस्याः । नृतौ । स्याम । नृऽतमस्य । नृणाम् । अनु । त्रिऽशोकः । शतम् । आ । अवहन् । नॄन् । कुत्सेन । रथः । यः । असत् । ससऽवान् ॥ १०.२९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
विषय - ससवान्
पदार्थ -
[१] हे प्रभो! (ते) = आपकी (अस्याः उषसः) = इस उषाकाल के तथा (अपरस्याः) = आनेवाली भी उषा के (प्रनृतौ) = प्रकृष्ट भवन में (प्रस्याम) = प्रकर्षेण हों। आप प्रत्येक उषःकाल में जिधर भी हमें ले चलनेवाले हों, उधर ही हम चलें। आप जो नाच नचायें, वही हमें रुचिकर हो । आप (नृणां नृतमस्य) = मनुष्यों के सर्वोत्तम नेता हैं। आपका नेतृत्व ही हमारा संचालक हो । [२] (अनु) = ऐसा होने पर ही, इसके बाद ही (कुत्सेन) = [कुथ हिंसायाम्] सब बुराइयों के संहार से (त्रिशोकः) = 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों की दीप्ति (नॄन्) = मनुष्यों को (शतं आवहत्) = सौ वर्ष तक ले चलनेवाली होती है । जब हम प्रभु की इच्छा के अनुसार जीवन को चलाते हैं, तो तीनों दीप्तियों को प्राप्त करते हैं और ये तीनों दीप्तियाँ हमारे जीवनों को सौ वर्ष तक ले चलने का कारण बनती हैं। [३] (यः रथः) = [रथः अस्य अस्ति इति रथः ] इस प्रकार जो भी उत्तम शरीररूप रथवाला व्यक्ति (असत्) = होता है वह (ससवान्) = सस्य को ही खानेवाला होता है, यह वानस्पतिक भोजन को ही करता है। वानस्पतिक भोजन सात्त्विक है, यही उपादेय है ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु की आज्ञा में चलें । सस्यभोजी बनें। इस प्रकार शरीर, मन व बुद्धि को दीप्त करनेवाले 'त्रिशोक' बनें।
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