ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
सं मा॑ तपन्त्य॒भित॑: स॒पत्नी॑रिव॒ पर्श॑वः । नि बा॑धते॒ अम॑तिर्न॒ग्नता॒ जसु॒र्वेर्न वे॑वीयते म॒तिः ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । मा॒ । त॒प॒न्ति॒ । अ॒भितः॑ । स॒पत्नीः॑ऽइव । पर्श॑वः । नि । बा॒ध॒ते॒ । अम॑तिः । न॒ग्नता॑ । जसुः॑ । वेः । न । वे॒वी॒य॒ते॒ । म॒तिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं मा तपन्त्यभित: सपत्नीरिव पर्शवः । नि बाधते अमतिर्नग्नता जसुर्वेर्न वेवीयते मतिः ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । मा । तपन्ति । अभितः । सपत्नीःऽइव । पर्शवः । नि । बाधते । अमतिः । नग्नता । जसुः । वेः । न । वेवीयते । मतिः ॥ १०.३३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
विषय - धृति की परीक्षा - ' क्षुधा व नग्नता' का कष्ट
पदार्थ -
[१] जिस समय गत मन्त्र के अनुसार मनुष्य लोकहित के कर्मों में, यज्ञात्मक कर्मों में ही लगा रहता है, उस समय एक समय वह भी आता है जिसमें कि मनुष्य सांसारिक दृष्टिकोण से अत्यन्त कष्टमय स्थिति में होता है। ये कष्ट वस्तुतः उसके धैर्य की परीक्षा के लिये आते हैं। यदि इनमें वह उत्तीर्ण हो जाता तो प्रभु की कृपा का पात्र बनता है । उन्हीं कष्टों का अनुभव करते हुए मन्त्र कहता है कि (मा) = मुझे (पर्शवः) = पार्श्व-स्थितियाँ- पसलियाँ अन्नभाव के कारण दुर्बलता से (अभितः) = दोनों ओर से (संतपन्ति) = पीड़ित करती हैं। इस प्रकार पीड़ित करती हैं, (इव) = जैसे कि (सपत्नी:) = सपत्नियाँ एक पुरुष को पीड़ित कर देती हैं । बहुविवाह के कारण जैसे एक पुरुष को सदा परेशानी ही परेशानी का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार इस धर्ममार्ग पर चलनेवाले पुरुष को भी एक समय गरीबी के कष्ट के कारण अन्न भी न मिल सकने से क्षुधा का कष्ट पीड़ित करता है, इसकी पसलियाँ ही दुर्बलता से दुःखने लगती हैं । [२] परेशानी इतनी अधिक हो जाती है कि (अमतिः निबाधते) = अचेतनता पीड़ित करने लगती है, होशोहवास के कायम न रहने की आशंका हो जाती है। वस्त्राभाव के कारण (नग्नता) = नग्नता के कष्ट का सामना करना पड़ता है। [३] ऐसी स्थिति में (मतिः) = बुद्धि (वेवीयते) = उस प्रकार डाँवाडोल हो जाती है (न) = जैसे कि (वेः) = पक्षी के होश (जसुः) = व्याधे से व्याधे के देखने पर नष्ट हो जाते हैं। मृत्यु चेहरे में झाँकती प्रतीत होती है और सब समाप्ति ही समाप्ति दृष्टिगोचर होती है, इस भयंकर स्थिति में बुद्धि का डाँवाडोल हो जाना स्वाभाविक है। यदि हम विचलित हो गये तो धृति की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाएँगे और हमारा पतन हो जाएगा।
भावार्थ - भावार्थ-धर्म के मार्ग पर चलनेवाले की परीक्षा होती है तो उसे 'क्षुधा व नग्नता' का कष्ट भी झेलना पड़ता है। कई बार तो ये कष्ट बुद्धि को विचलित कर देते हैं ।
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