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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    रथं॒ यान्तं॒ कुह॒ को ह॑ वां नरा॒ प्रति॑ द्यु॒मन्तं॑ सुवि॒ताय॑ भूषति । प्रा॒त॒र्यावा॑णं वि॒भ्वं॑ वि॒शेवि॑शे॒ वस्तो॑र्वस्तो॒र्वह॑मानं धि॒या शमि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रथ॑म् । यान्त॑म् । कुह॑ । कः । ह॒ । वा॒म् । न॒रा॒ । प्रति॑ । द्यु॒ऽमन्त॑म् । सु॒ऽवि॒ताय॑ । भू॒ष॒ति॒ । प्रा॒तः॒ऽयावा॑णम् । वि॒ऽभ्व॑म् । वि॒शेऽवि॑शे । वस्तोः॑ऽवस्तोः । वह॑मानम् । धि॒या । शमि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रथं यान्तं कुह को ह वां नरा प्रति द्युमन्तं सुविताय भूषति । प्रातर्यावाणं विभ्वं विशेविशे वस्तोर्वस्तोर्वहमानं धिया शमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रथम् । यान्तम् । कुह । कः । ह । वाम् । नरा । प्रति । द्युऽमन्तम् । सुऽविताय । भूषति । प्रातःऽयावाणम् । विऽभ्वम् । विशेऽविशे । वस्तोःऽवस्तोः । वहमानम् । धिया । शमि ॥ १०.४०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] वेद में 'रथं न वेद्यम् = इन शब्दों में प्रभु को रथ के समान जानने के लिये कहा है । प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि ऐ नरा-हमें उन्नति पथ पर आगे और आगे ले चलनेवाले प्राणापानो! (कुह) = कहाँ (कः) = कौन (ह) = ही, कोई विरल पुरुष ही, (सुविताय) = उत्तम आचरण के लिये, उत्तम गति के लिये (वाम्) = आपके (रथम्) = इस प्रभु रूप रथ को प्रति (भूषति) = प्रतिदिन अलंकृत करता है । यह प्रभु रूप रथ अश्विनी देवों का इसलिए है कि इनकी साधना से ही प्रभु की प्राप्ति होती है। प्रभु रथ इसलिए हैं कि प्रभु के आलम्बन से ही जीवनयात्रा पूरी होती है। [२] यह प्रभु रूप रथ (द्युमन्तम्) = ज्योतिर्मय है । (यान्तम्) = यह निरन्तर गतिमय है । प्रभु की क्रिया व ज्ञान स्वाभाविक ही हैं। (प्रातर्यावाणम्) = यह प्रातः प्राप्त होनेवाला है। इसी से प्रातः काल को 'ब्रह्म मुहूर्त' यह नाम दिया गया है। यह (विशे-विशे विभ्वम्) = प्रत्येक प्रजा में व्यापनवाला है और (वस्तो-वस्तोः) = प्रतिदिन (धिया) = ज्ञानपूर्वक (शमि) = यज्ञादि उत्तम कर्मों में (वहमानम्) = हमें प्राप्त कराता है। हृदय में स्थित उस प्रभु की प्रेरणा हमें उत्तम कर्मों में प्रेरित करती है । उस प्रेरणा के अनुसार चलने पर हम सदा ज्ञानपूर्वक यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु हमारे लिये रथ के समान हैं। यह रथ हमें ज्ञानपूर्वक यज्ञादि कर्मों में ले चलता हुआ यात्रा पूर्ति में साधन बनता है ।

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