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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    कुह॑ स्विद्दो॒षा कुह॒ वस्तो॑र॒श्विना॒ कुहा॑भिपि॒त्वं क॑रत॒: कुहो॑षतुः । को वां॑ शयु॒त्रा वि॒धवे॑व दे॒वरं॒ मर्यं॒ न योषा॑ कृणुते स॒धस्थ॒ आ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कुह॑ । स्वि॒त् । दो॒षा । कुह॑ । वस्तोः॑ । अ॒श्विना॑ । कुह॑ । अ॒भि॒ऽपि॒त्वम् । क॒र॒तः॒ । कुह॑ । ऊ॒ष॒तुः॒ । कः । वा॒म् । श॒यु॒ऽत्रा । वि॒धवा॑ऽइव । दे॒वर॑म् । मर्य॑म् । न । योषा॑ । कृ॒णु॒ते॒ । स॒धऽस्थे॑ । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करत: कुहोषतुः । को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुह । स्वित् । दोषा । कुह । वस्तोः । अश्विना । कुह । अभिऽपित्वम् । करतः । कुह । ऊषतुः । कः । वाम् । शयुऽत्रा । विधवाऽइव । देवरम् । मर्यम् । न । योषा । कृणुते । सधऽस्थे । आ ॥ १०.४०.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (दोषा) = रात्रि में (कुह स्वित्) = कहाँ (अभिपित्वं करतः) = अभिप्राप्ति को करते हो। (कुह) = कहाँ (वस्तोः) = दिन में होते हो, (कुह) = कहाँ (ऊषतु) = आपका निवास होता है। जब कि सब इन्द्रियाँ सो जाती हैं उस समय भी ये प्राणापान जागते रहकर अपने कार्य में प्रवृत्त रहते हैं । वस्तुतः उस रात्रि के समय सारे शोधन के कार्य को ये करनेवाले होते हैं । [२] (कः) = कोई व्यक्ति ही (वाम्) = आप दोनों को (सधस्थे) = आत्मा और परमात्मा के सम्मिलित रूप से स्थित होने के स्थान हृदय में (आकृणुते) = अभिमुख करता है। प्राणसाधना का ध्यान विरल पुरुषों को ही होता है । इस साधना में प्राणों को हृदय में पूरित करके उन्हें इस प्रकार वेग से छोड़ा जाता है जैसे कि उनका प्रच्छर्दन [वमन] ही हो रहा है। इस 'प्रच्छर्दन व विधारण' रूप प्राणसाधन से रुधिर का शोधन होकर शरीर में सब उत्तमताओं का प्रापण होता है। [३] प्राणों को इस प्रकार अभिमुख करने का प्रयत्न करना चाहिये (इव) = जैसे कि (विधवा) = पति के चले जाने पर अपत्नीक स्त्री (देवरम्) = देवर को अभिमुख करती है और (न) = जैसे (योषा) = पत्नी (शयुत्रा) = शयन-स्थान में (मर्यम्) = पति को अभिमुख करती है। जैसे घर का कार्य केवल पत्नी नहीं चला सकती, वह पति को अभिमुख करके ही कार्य कर पाती है, इसी प्रकार जीव प्राणों को अभिमुख करके ही घर के कार्य को चला पाता है। एक विधवा के लिये देवर की सहायता आवश्यक है, इसी प्रकार जीव के लिए प्राण का सहाय आवश्यक है ।

    भावार्थ - भावार्थ - जीव प्राणों के सहाय से ही जीवनयात्रा को पूर्ण कर पाता है।

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