ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 12
अस्ता॑व्य॒ग्निर्न॒रां सु॒शेवो॑ वैश्वान॒र ऋषि॑भि॒: सोम॑गोपाः । अ॒द्वे॒षे द्यावा॑पृथि॒वी हु॑वेम॒ देवा॑ ध॒त्त र॒यिम॒स्मे सु॒वीर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअस्ता॑वि । अ॒ग्निः । न॒राम् । सु॒ऽशेवः॑ । वै॒श्वा॒न॒रः । ऋषि॑ऽभिः । सोम॑ऽगोपाः । अ॒द्वे॒षे । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । हु॒वे॒म॒ । देवाः॑ । ध॒त्त । र॒यिम् । अ॒स्मे इति॑ । सु॒ऽवीर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्ताव्यग्निर्नरां सुशेवो वैश्वानर ऋषिभि: सोमगोपाः । अद्वेषे द्यावापृथिवी हुवेम देवा धत्त रयिमस्मे सुवीरम् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्तावि । अग्निः । नराम् । सुऽशेवः । वैश्वानरः । ऋषिऽभिः । सोमऽगोपाः । अद्वेषे । द्यावापृथिवी इति । हुवेम । देवाः । धत्त । रयिम् । अस्मे इति । सुऽवीरम् ॥ १०.४५.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 12
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
विषय - सोमरक्षण व निर्देषता
पदार्थ -
[१] (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (ऋषिभिः) = तत्त्वद्रष्टा लोगों से मन्त्रों द्वारा [ऋषि द्रष्टा, मन्त्र] (अस्तावि) = स्तवन किये जाते हैं। ये प्रभु (नराम्) = [नृ नये] अपने को उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले पुरुषों का (सुशेवः) = उत्तम कल्याण करनेवाले हैं। (वैश्वानरः) = सभी मनुष्यों में इन प्रभु का वास है 'विश्वेषु नरेषु भवः' । (सोमगोपाः) = सोम का ये रक्षण करनेवाले हैं। प्रभु स्मरण से वृत्ति सुन्दर बनती है, विलास से मनुष्य ऊपर उठता है और वीर्य को नष्ट होने से बचा पाता है । [२] इस प्रकार वीर्यरक्षण से शक्तिशाली बनकर हम द्यावापृथिवी द्युलोक व पृथिवीलोक को, अर्थात् सारे संसार को (अद्वेषे) = अद्वेष में हुवेम पुकारते हैं। किसी के भी प्रति द्वेष की भावनावाले नहीं होते । [३] (देवाः) = हे देवो ! इस प्रकार हमारे जीवनों को द्वेषशून्य बनाकर आप अस्मे हमारे लिये (सुवीरं रयिम्) = उत्तम वीरतावाले धन को (धत्त) = धारण करो। हमें धन प्राप्त हो, धन के साथ वीरता प्राप्त हो । धन से विषयों की ओर जाकर हम अवीर न बन जायें।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु स्मरण मनुष्य को वासनाओं से बचाकर सुरक्षित सोमवाला बनाता है, सोमी [वीर्यवान्] पुरुष निर्देष होता है, वीरतायुक्त धन को प्राप्त करता है । यह सूक्त 'ज्ञानाग्नि, जाठराग्नि व नृमणा' अग्नियों के वर्णन से प्रारम्भ होता है, [१] इन तीन अग्नियों का स्रोत प्रभुरूप महान् अग्नि हैं, [२] इन तीनों अग्नियों का हमें वर्धन करना चाहिए, [३] अग्नि रूप प्रभु की प्रेरणा के सुनने पर हमारा जीवन प्रकाशमय होगा, [४] प्रभु प्रिय व्यक्ति धन-सम्पन्न होता हुआ उदार होता है, [५] यह वसुधा को अपना परिवार समझता है, [६] सर्वहितचिन्तक व पावक होता है, [७] श्री सम्पन्न बनकर यह तत्त्वद्रष्टा होने से उसमें आसक्त नहीं होता, [८] हम आचार्यों से ज्ञान का भोजन को प्राप्त करें, [९] उत्तम यशस्वी कर्मों व स्तोत्रों से प्रभु-स्तवन करनेवाले बनें, [१०] हमारे जीवन में विष्णु व लक्ष्मी दोनों का स्थान हो, [११] प्रभु-स्तवन से सोम का रक्षण करते हुए निर्दोष जीवनवाले हों, [१२] प्रभु का पूजन वही करता है जो वदति - मुख से प्रभु के नामों का उच्चारण करता है और प्रीणाति = अपने उत्तम कर्मों से प्रभु को प्रीणित करता है। प्रभु-पूजन करता हुआ यह कहता है कि-
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