ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
प्र होता॑ जा॒तो म॒हान्न॑भो॒विन्नृ॒षद्वा॑ सीदद॒पामु॒पस्थे॑ । दधि॒र्यो धायि॒ स ते॒ वयां॑सि य॒न्ता वसू॑नि विध॒ते त॑नू॒पाः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । होता॑ । जा॒तः । म॒हान् । न॒भः॒ऽवित् । नृ॒ऽसद्वा॑ । सी॒द॒त् । अ॒पाम् । उ॒पऽस्थे॑ । दधिः॑ । यः । धायि॑ । सः । ते॒ । वयां॑सि । य॒न्ता । वसू॑नि । वि॒ध॒ते । त॒नू॒ऽपाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र होता जातो महान्नभोविन्नृषद्वा सीददपामुपस्थे । दधिर्यो धायि स ते वयांसि यन्ता वसूनि विधते तनूपाः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । होता । जातः । महान् । नभःऽवित् । नृऽसद्वा । सीदत् । अपाम् । उपऽस्थे । दधिः । यः । धायि । सः । ते । वयांसि । यन्ता । वसूनि । विधते । तनूऽपाः ॥ १०.४६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - सर्वमहान् होता
पदार्थ -
[१] वे प्रभु (महान् होता) = सर्वमहान् होता (प्रजात:) = हो गये हैं। प्रभु ने जीव के हित के लिये सब कुछ दे दिया है। संसार के व्यक्ति कुछ न कुछ अपनी आवश्यकताएँ भी रखते हैं, सो उनके लिये शत प्रतिशत होता बनना कठिन होता है। प्रभु ही पूर्णरूप से होता बनते हैं । वे प्रभु (नभोवित्) = इस सम्पूर्ण आकाश को जाननेवाले प्राप्त करनेवाले हैं, सर्वव्यापक हैं, आकाश ही हैं (नृषद्वा) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोगों के अन्दर वे (आसीन) = होते हैं । (अपां उपस्थे) = कर्मों की गोद में प्रभु (सीदत्) = बैठते हैं। अर्थात् कर्मशील व्यक्ति को ही प्रभु का दर्शन होता है, अकर्मण्य को नहीं । [२] (दधिः) = वे सबका धारण करनेवाले हैं, वे प्रभु (यः) = जो 'वत्सप्री' लोगों के द्वारा (धायि) = अपने हृदयों में धारण किये जाते हैं । [३] (स) = वे प्रभु ही (ते विधते) = तुझ उपासक के लिये (वयांसि) = आयुष्य वर्धक सात्त्विक अन्नों को तथा (वसूनि) = वसुओं को (यन्ता) = प्राप्त कराते हैं । निवास के लिये आवश्यक सब धनों को वे देनेवाले हैं। (तनूपा:) = हमारे शरीरों की रक्षा करनेवाले हैं। शरीर रक्षण के लिये आवश्यक सब वसु उस प्रभु से प्राप्त होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु सर्वमहान् होता हैं, वे कर्मशील पुरुषों में वास करते हैं। हमारे रक्षण के लिये अन्नों व धनों को प्राप्त कराते हैं।
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