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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं वि॒धन्तो॑ अ॒पां स॒धस्थे॑ प॒शुं न न॒ष्टं प॒दैरनु॑ ग्मन् । गुहा॒ चत॑न्तमु॒शिजो॒ नमो॑भिरि॒च्छन्तो॒ धीरा॒ भृग॑वोऽविन्दन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । वि॒धन्तः॑ । अ॒पाम् । स॒धऽस्थे॑ । प॒शुम् । न । न॒ष्टम् । प॒दैः । अनु॑ । ग्म॒न् । गुहा॑ । चत॑न्तम् । उ॒शिजः॑ । नमः॑ऽभिः । इ॒च्छन्तः॑ । धीराः॑ । भृग॑वः । अ॒वि॒न्द॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं विधन्तो अपां सधस्थे पशुं न नष्टं पदैरनु ग्मन् । गुहा चतन्तमुशिजो नमोभिरिच्छन्तो धीरा भृगवोऽविन्दन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । विधन्तः । अपाम् । सधऽस्थे । पशुम् । न । नष्टम् । पदैः । अनु । ग्मन् । गुहा । चतन्तम् । उशिजः । नमःऽभिः । इच्छन्तः । धीराः । भृगवः । अविन्दन् ॥ १०.४६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हृदय में जीवात्मा परमात्मा के साथ एक स्थान पर स्थित होता है एवं यह हृदय (अपाम्) = प्रजाओं का (सधस्थ) = प्रभु के साथ मिलकर बैठने का स्थान है इस (सधस्थे) = प्रभु के साथ मिलकर बैठने के स्थान में (इमम्) = इस प्रभु को (विधन्तः) = पूजते हुए 'वत्सप्री' लोग (पदैः) = वेद के शब्दों से, ज्ञान की वाणियों से अथवा 'वैश्वानर, तैजस व प्राज्ञ' [सबके हितकारी, तेजस्वी व बुद्धिमान् ] बनने रूप तीन कदमों से अनुग्मन् प्रभु को अनुक्रमेण प्राप्त करते हैं । उसी प्रकार प्राप्त करते हैं (न) = जैसे कि (नष्टं पशुम्) = नष्ट हुए हुए पशु को (पदैः) = चरणचिह्नों से (अनुग्मन्) = पीछा करते हुए प्राप्त करते हैं । [२] (गुहा चतन्त) = [ चत् = to go ] बुद्धि रूप गुहा में गये हुए उस प्रभु को (उशिज:) = प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाले मेधावी लोग, (नमोभिः) = नमस्कारों द्वारा व नम्रता के द्वारा (इच्छन्तः) = चाहते हुए (धीराः) = ज्ञान में रमण करनेवाले (भृगवः) = तप की अग्नि में अपने को परिपक्व बनानेवाले व्यक्ति (अविन्दन्) = प्राप्त करते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु का पूजन हृदय में होता है। यह पूजन 'उशिक्, नम्र, धीर व भृगु' बननेवाले ही करते हैं ।

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