Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 92 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 15
    ऋषिः - शार्यातो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    रेभ॒दत्र॑ ज॒नुषा॒ पूर्वो॒ अङ्गि॑रा॒ ग्रावा॑ण ऊ॒र्ध्वा अ॒भि च॑क्षुरध्व॒रम् । येभि॒र्विहा॑या॒ अभ॑वद्विचक्ष॒णः पाथ॑: सु॒मेकं॒ स्वधि॑ति॒र्वन॑न्वति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रेभ॑त् । अत्र॑ । ज॒नुषा॑ । पूर्वः॑ । अङ्गि॑राः । ग्रावा॑णः । ऊ॒र्ध्वाः॑ । अ॒भि । च॒क्षुः॒ । अ॒ध्व॒रम् । येभिः॑ । विऽहा॑याः । अभ॑वत् । वि॒ऽच॒क्ष॒णः । पाथः॑ । सु॒ऽमेक॑म् । स्वऽधि॑तिः । वन॑न्ऽवति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रेभदत्र जनुषा पूर्वो अङ्गिरा ग्रावाण ऊर्ध्वा अभि चक्षुरध्वरम् । येभिर्विहाया अभवद्विचक्षणः पाथ: सुमेकं स्वधितिर्वनन्वति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रेभत् । अत्र । जनुषा । पूर्वः । अङ्गिराः । ग्रावाणः । ऊर्ध्वाः । अभि । चक्षुः । अध्वरम् । येभिः । विऽहायाः । अभवत् । विऽचक्षणः । पाथः । सुऽमेकम् । स्वऽधितिः । वनन्ऽवति ॥ १०.९२.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] प्रभु अंगिरा हैं 'अगि गतौ 'सम्पूर्ण गति का स्रोत हैं। ये प्रभु सृष्टि से पूर्व होने के कारण 'पूर्व: अंगिराः ' कहे गये हैं । प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में ये 'अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिराः ' आदि मानस पुत्रों को जन्म देते हैं और उन्हें वेद के द्वारा सब पदार्थों का ठीक से ज्ञान दे देते हैं । (अत्र) = इस सृष्टि में (पूर्व: अंगिराः) = सृष्टि से पहले ही विद्यमान गति के स्रोत प्रभु (जनुषा) = जन्म से ही, जन्म के साथ ही (रेभत्) = वेद के शब्दों द्वारा सब पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कराते हैं ज्ञान के बिना इन पदार्थों के ठीक प्रयोग का संभव ही नहीं है । [२] (ऊर्ध्वा:) = ज्ञान के दृष्टिकोण से उच्च स्थिति में पहुँचनेवाले (ग्रावाणः) = स्तोता लोग (अध्वरम्) = उस हिंसा से ऊपर उठे हुए यज्ञरूप प्रभु को (अभिचक्षुः) = देखनेवाले होते हैं। ये स्तोता वे हैं (येभिः) = जिनसे (विचक्षणः) = वे सर्वद्रष्टा प्रभु (विहायाः) = आकाशवत् व्यापक व महान् (अभवत्) = होते हैं। जितना प्रभु की महिमा का गायन होता है, उतना ही प्रभु विस्तृत और विस्तृत होते जाते हैं । [३] यह प्रभु का स्तवन करनेवाला 'स्व-दिति:'=आत्मतत्त्व का धारण करनेवाला ज्ञानी (सुमेकं पाथः) = जिन जीवन का शोभन रूप में निर्माण करनेवाले मार्ग का (वनन्वति) = सेवन करता है, शुभ मार्ग पर चलता हुआ जीवन को उत्तम बनाता है ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में ही सब पदार्थों का ज्ञान देते हैं। उस ज्ञान के अनुसार शुभ मार्ग पर चलता हुआ व्यक्ति सदा कल्याण को सिद्ध करता है । सम्पूर्ण सूक्त का मुख्य भाव यही है कि विचारशील बनकर वासनाओं का संहार करते हुए शुभ मार्ग पर ही चलना है। ऐसा ही व्यक्ति तान्वः = [तनु विस्तारे] अपनी शक्तियों का विस्तार करता है, इसी कारण वह 'पार्थ्यः' कहलाता है [ प्रथविस्तारे] पृथा का पुत्र । यह 'तान्व पार्थ्य' ही अगले सूक्त का ऋषि है। यह कहता है कि-

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top