ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 39/ मन्त्र 8
ए॒तानि॑ वामश्विना॒ वर्ध॑नानि॒ ब्रह्म॒ स्तोमं॑ गृत्सम॒दासो॑ अक्रन्। तानि॑ नरा जुजुषा॒णोप॑ यातं बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥
स्वर सहित पद पाठए॒तानि॑ । वा॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । वर्ध॑नानि । ब्रह्म॑ । स्तोम॑म् । गृ॒त्स॒ऽम॒दासः॑ । अ॒क्र॒न् । तानि॑ । न॒रा॒ । जु॒जु॒षा॒णा । उप॑ । या॒त॒म् । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतानि वामश्विना वर्धनानि ब्रह्म स्तोमं गृत्समदासो अक्रन्। तानि नरा जुजुषाणोप यातं बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥
स्वर रहित पद पाठएतानि। वाम्। अश्विना। वर्धनानि। ब्रह्म। स्तोमम्। गृत्सऽमदासः। अक्रन्। तानि। नरा। जुजुषाणा। उप। यातम्। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 39; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
विषय - प्राणापान का आराधन
पदार्थ -
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (एतानि) = ये हमारे सब कार्य (वाम्) = आपके (वर्धनानि) = बढ़ानेवाले हों। हम सब कार्यों को इस प्रकार व्यवस्थित करें कि प्राणसाधना किसी भी प्रकार उपेक्षित न हो। २. इसी उद्देश्य से (गृत्समदासः) = [गृणाति माद्यति] प्रभु का स्तवन करनेवाले और आनन्द में रहनेवाले लोग ब्रह्म ज्ञान को व (सोमम्) = स्तुति को (अक्रन्) = करते हैं। ज्ञानप्राप्ति व स्तुति की प्रवृत्तिवाला व्यक्ति प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है। प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता होकर ज्ञान की और वृद्धि होती है तथा मन की वृत्ति अन्तर्मुखी होकर यह साधक को प्रभुस्तवन की ओर लेचलती है। ३. हे (नरा) = हमें उन्नति पथ पर ले चलनेवाले प्राणापानो! आप (तानि) = उन ज्ञानों [ब्रह्म] [स्तोमं] स्तुतियों का (जुजुषाणा) = प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए (उपयातम्) = हमें प्राप्त होओ, अर्थात् तुम्हारे द्वारा हम ज्ञान व स्तवन की वृत्ति को प्राप्त करें। हम (सुवीराः) = उत्तम वीर बनते हुए (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (बृहद् वदेम) = खूब ही आपके महत्त्व का प्रतिपादन करें। प्राणापान के महत्त्व को अपने हृदयों पर अंकित करते हुए हम प्राणसाधना में प्रवृत्त हों और अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाएं ।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणापान का हम स्तवन करें- इनके गुणों को समझकर प्राणसाधना करनेवाले बनें । इस प्राणसाधना से अपने ज्ञान व स्तवन की वृत्ति को बढ़ाएँ। सारा सूक्त प्राणापान के महत्त्व को बड़ी सुन्दरता से व्यक्त कर रहा है। इस साधना का सर्वमहान् लाभ यह होगा कि हमारे में सोम व पूषन् दोनों तत्त्वों का वर्धन होगा। 'सोम' चन्द्रमा है, यह रस का संचार करता है। 'पूषा' सूर्य है यह उस रस का परिपाक करता है। इसके संचार के अभाव में सब अन्न के दाने पत्थरों के कंकर प्रतीत होंगे तथा परिपाक के अभाव में कच्चा रस शरीर में रोगोत्पादन करेगा। मानव स्वभाव में भी सौम्यता व तेजस्विता का समन्वय ही अपेक्षित है। अकेली सौम्यता व अकेली तेजस्विता दोनों ही अभीष्ट नहीं। घर में माता पिता की सौम्यता ही सौम्यता सन्तानों को बिगाड़ देती है तथा तेजस्विता ही तेजस्विता उन्हें जला देती है - उनकी शक्तियाँ दबी रही जाती हैं- विकसित नहीं हो पातीं। प्राणसाधना से 'सोम व पूषा' दोनों का विकास होता है। अग्रिम सूक्त में इन्हीं का उल्लेख है ।
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