ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - सोमापूषणावदितिश्च
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सोमा॑पूषणा॒ जन॑ना रयी॒णां जन॑ना दि॒वो जन॑ना पृथि॒व्याः। जा॒तौ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य गो॒पौ दे॒वा अ॑कृण्वन्न॒मृत॑स्य॒ नाभि॑म्॥
स्वर सहित पद पाठसोमा॑पूषणा । जन॑ना । र॒यी॒णाम् । जन॑ना । दि॒वः । जन॑ना । पृ॒थि॒व्याः । जा॒तौ । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । गो॒पौ । दे॒वाः । अ॒कृ॒ण्व॒न् । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमापूषणा जनना रयीणां जनना दिवो जनना पृथिव्याः। जातौ विश्वस्य भुवनस्य गोपौ देवा अकृण्वन्नमृतस्य नाभिम्॥
स्वर रहित पद पाठसोमापूषणा। जनना। रयीणाम्। जनना। दिवः। जनना। पृथिव्याः। जातौ। विश्वस्य। भुवनस्य। गोपौ। देवाः। अकृण्वन्। अमृतस्य। नाभिम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - 'ऐश्वर्य व अमृतत्व' की प्राप्ति
पदार्थ -
१. (सोमापूषणा) = सोम और (पूषा) = सौम्यता व तेजस्विता-दोनों मिलकर (रयीणाम्) = धनों को (जनना) = पैदा करनेवाले हैं। सब ऐश्वर्य सोम और पूषा के मेल से ही उत्पन्न होते हैं। ये (दिवः) = प्रकाश के जनना पैदा करनेवाले हैं तथा (पृथिव्याः) [प्रथ विस्तारे] = तथा हृदय के विस्तार को (जनना) = पैदा करते हैं। सोम व पूषा के मेल से मस्तिष्क में ज्ञानप्रकाश को हम प्राप्त करते हैं तथा हृदय में उदारता व विशालता प्राप्त करनेवाले होते हैं । २. (जातौ) = उत्पन्न हुए हुए वे सोम व पूषा (विश्वस्य भुवनस्य) = सारे विश्व के (गोपौ) = रक्षक होते हैं। सोम एक वस्तु को उत्पन्न करता है, पूषा उसे परिपक्व करता है। इस प्रकार संसार का रक्षण होता है (देवा:) = सब समझदार [ज्ञानी] व्यक्ति सोम व पूषा के समन्वय से (अमृतस्य) = अमृत के (नाभिम्) = [नह बन्धने] बन्धन को (अकृण्वन्) = करते हैं, अर्थात् अपने में अमरता का संचार करते हैं। अन्यत्र 'सोम' को 'आप' शब्द से तथा 'पूषा' को 'ज्योतिः' शब्द से कहा है और 'आपः + ज्योतिः' के समन्वय से ही 'रसः' जीवन का रस तथा 'अमृतम्' नीरोगता की प्राप्ति का उल्लेख है 'आपो ज्योतीरसोऽमृतम्॰ ' ।
भावार्थ - भावार्थ – जीवन में 'सोम व पूषा' के समन्वय से सब ऐश्वर्यों का प्रादुर्भाव होता है। इसी से प्रकाश व शक्तियों का विस्तार अथवा विशालहृदयता प्राप्त होती है। ये ही सबके रक्षक हैं और अमरता को प्राप्त कराते हैं ।
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