ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
अधा॒ ह्य॑ग्ने॒ क्रतो॑र्भ॒द्रस्य॒ दक्ष॑स्य सा॒धोः। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ बृह॒तो ब॒भूथ॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । हि । अ॒ग्ने॒ । क्रतोः॑ । भ॒द्रस्य॑ । दक्ष॑स्य । सा॒धोः । र॒थीः । ऋ॒तस्य॑ । बृ॒ह॒तः । ब॒भूथ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा ह्यग्ने क्रतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधोः। रथीर्ऋतस्य बृहतो बभूथ ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअध। हि। अग्ने। क्रतोः। भद्रस्य। दक्षस्य। साधोः। रथीः। ऋतस्य। बृहतः। बभूथ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
विषय - 'ऋतु व ऋत के नेता प्रभु'
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (अधा हि) = अब निश्चय से (क्रतो:) = हमारे जीवन में यज्ञ के (रथी:) = नेता (बभूथ) = आप होते हैं। आपकी कृपा से हमारा जीवन यज्ञमय बनता है। इस हमारे जीवन में उस यज्ञ के आप नेता होते हैं, जो कि (भद्रस्य) = हमारा कल्याण करनेवाला है। (दक्षस्य) = हमारी betterment [वृद्धि] का कारण है तथा (साधो:) = हमारे सब कार्यों को सिद्ध करनेवाला है। [२] इस यज्ञ के साथ आप (बृहत:) = महान् व वृद्धि के कारणभूत (ऋतस्य) = ऋत के आप रथी [नेता] होते हैं। आपके स्तवन से हमारा जीवन ऋतमय बनता है, हम सब कार्यों को ठीक समय पर व ठीक स्थान पर करनेवाले बनते हैं। यह ऋत हमारी वृद्धि का कारण बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु स्तवन के होने पर हमारा जीवन क्रतु व ऋतवाला होता है। हम जीवन में यज्ञमय बनते हैं और सब कार्यों को ठीक समय पर करनेवाले होते हैं ।
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