ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
अग्ने॒ तम॒द्याश्वं॒ न स्तोमैः॒ क्रतुं॒ न भ॒द्रं हृ॑दि॒स्पृश॑म्। ऋ॒ध्यामा॑ त॒ ओहैः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । तम् । अ॒द्य । अश्व॑म् । न । स्तोमैः॑ । क्रतु॑म् । न । भ॒द्रम् । हृ॒दि॒ऽस्पृश॑म् । ऋ॒ध्याम॑ । ते॒ । ओहैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशम्। ऋध्यामा त ओहैः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। तम्। अद्य। अश्वम्। न। स्तोमैः। क्रतुम्। न। भद्रम्। हृदिऽस्पृशम्। ऋध्याम। ते। ओहैः॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - स्तवन द्वारा प्रभु का सान्निध्य
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (ते) = आपके (ओहे:) = प्राप्त करानेवाले (स्तोमैः) = स्तोमों से (अद्य) = आज (तम्) = उन प्रसिद्ध आपको (ऋध्याम) = हम अपने अन्दर समृद्ध करें। हम आपको अपने हृदयों में स्तोमों के द्वारा बढ़ानेवाले हों । आप की स्तुति करते हुए, उन स्तुति-वाचक शब्दों से प्रेरणा को लेकर वैसे ही बनते हुए, आपको अपने में दीप्त करनेवाले हों। [२] उन आपको हम अपने में समृद्ध करें, जो आप (अश्वं न) = घोड़े के समान हैं। जैसे घोड़ा हमें लक्ष्य स्थान पर पहुँचाता है, उसी प्रकार आप हमें लक्ष्य स्थान पर पहुँचानेवाले हैं। (क्रतुं न) = यज्ञ के समान (भद्रम्) = हमारा कल्याण करनेवाले हैं। यज्ञ से जीवन नीरोग बनता है, प्रभु की उपासना से भी नीरोगता व निर्मलता प्राप्त होती है। हे प्रभो! आप (हृदिस्पृशम्) = हमारे हृदयों में सम्पर्कवाले हैं। हम हृदयों में ही आपका दर्शन कर पाते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम स्तवन के द्वारा प्रभु की समीपता को प्राप्त करें। प्रभु हमारा कल्याण करनेवाले हैं। हृदयों में हम उस प्रभु का दर्शन करते हैं।
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