ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 10
प्र ते॒ पूर्वा॑णि॒ कर॑णानि विप्रावि॒द्वाँ आ॑ह वि॒दुषे॒ करां॑सि। यथा॑यथा॒ वृष्ण्या॑नि॒ स्वगू॒र्तापां॑सि राज॒न्नर्यावि॑वेषीः ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । पूर्वा॑णि । कर॑णानि । वि॒प्र॒ । आ॒ऽवि॒द्वान् । आ॒ह॒ । वि॒दुषे॑ । करां॑सि । यथा॑ऽयथा । वृष्ण्या॑नि । स्वऽगू॒र्ता । अपां॑सि । रा॒ज॒न् । नर्या॑ । अवि॑वेषीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते पूर्वाणि करणानि विप्राविद्वाँ आह विदुषे करांसि। यथायथा वृष्ण्यानि स्वगूर्तापांसि राजन्नर्याविवेषीः ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ते। पूर्वाणि। करणानि। विप्र। आऽविद्वान्। आह। विदुषे। करांसि। यथाऽयथा। वृष्ण्यानि। स्वऽगूर्ता। अपांसि। राजन्। नर्या। अविवेषीः ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
विषय - करणों व कर्मों का ज्ञान
पदार्थ -
[१] हे (विप्र) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपके (पूर्वाणि) = पालन व पूरण करनेवाले (करणानि) = करणों को (आविद्वान्) = सम्यग् जानता हुआ यह पुरुष विदुषे एक समझदार व्यक्ति के लिए (करांसि) = करने योग्य कर्मों को (प्र आह) = प्रकर्षेण कहता है । एक ज्ञानी-पुरुष [आचार्य] समझदार शिष्य के लिए बतलाता है कि प्रभु ने किस प्रकार 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' रूप सुन्दर करण [साधन] दिये हैं। इनका ठीक प्रयोग करते हुए इन यज्ञादि व ज्ञानप्राप्ति के कर्मों को करना चाहिए। [२] वह आचार्य विद्यार्थी को बतलाता है कि (यथा यथा) = जिस-जिस प्रकार, (राजन्) = सम्पूर्ण संसार के शासक प्रभो! आप (वृष्ण्यानि) = सुखों के वर्षण करने में उत्तम (स्वगूर्ता) = आत्मतत्त्व को उद्गूर्ण करनेवाले-आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाले (नर्या) = नरहितकारी (अपांसि) = कर्मों को (अविवेषी:) = व्याप्त करते हैं। उन कर्मों का उपदेश करके आचार्य विद्यार्थी को वैसे ही कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- आचार्य विद्यार्थी को प्रभु से प्राप्त कराए गये करणों का संकेत करते कर्तव्यकर्मों का ज्ञान दे । सामान्यतः वे कर्म सुखवर्धक, आत्मतत्त्व की ओर ले जानेवाले तथा नरहितकारी हों।
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