ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 19/ मन्त्र 9
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
व॒म्रीभिः॑ पु॒त्रम॒ग्रुवो॑ अदा॒नं नि॒वेश॑नाद्धरिव॒ आ ज॑भर्थ। व्य१॒॑न्धो अ॑ख्य॒दहि॑माददा॒नो निर्भू॑दुख॒च्छित्सम॑रन्त॒ पर्व॑ ॥९॥
स्वर सहित पद पाठव॒म्रीभिः॑ । पु॒त्रम् । अ॒ग्रुवः॑ । अ॒दा॒नम् । नि॒ऽवेश॑नात् । ह॒रि॒ऽवः॒ । आ । ज॒भ॒र्थ॒ । वि । अ॒न्धः । अ॒ख्य॒त् । अहि॑म् । आ॒ऽद॒दा॒नः । निः । भू॒त् । उ॒ख॒ऽछित् । सम् । अ॒र॒न्त॒ । पर्व॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वम्रीभिः पुत्रमग्रुवो अदानं निवेशनाद्धरिव आ जभर्थ। व्य१न्धो अख्यदहिमाददानो निर्भूदुखच्छित्समरन्त पर्व ॥९॥
स्वर रहित पद पाठवम्रीभिः। पुत्रम्। अग्रुवः। अदानम्। निऽवेशनात्। हरिऽवः। आ। जभर्थ। वि। अन्धः। अख्यत्। अहिम्। आऽददानः। निः। भूत्। उखऽछित्। सम्। अरन्त। पर्व ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 19; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
विषय - उखच्छित्
पदार्थ -
[१] हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाले प्रभो! आप (वम्रीभिः)= विषयवासनारूप चींटियों से (अदानम्) = खाये जाते हुए (अग्रुवः पुत्रम्) = इस वेदवाणी रूप नदी के पुत्र-वेदवाणी के अपनानेवालेवेदवाणी द्वारा अपना पवित्रीकरण व त्राण (पुनाति त्रायते) करनेवाले को (निवेशनात्) = विषयों के अभिनिवेश से विषयों के प्रति वासना से आजभर्थ बाहर खींच लाते हैं । [२] आपकी कृपा से (अंध:) = तत्त्व को न देखनेवाला भी यह (अहिम्) = इस वासनारूप सर्प को (वि अख्यत्) = विशेषरूप से देखने लगता है। (आददान:) = वेदवाणी द्वारा ज्ञान प्राप्त करता हुआ यह निर्भूत् वासनाओं से बाहर हो जाता है। (उखच्छित्) = यह इस पेट रूप ऊखा का छेदन करनेवाला बनता है- पेटू न बनकर बड़ा मितभुक् होता है, परिणामतः इसके (पर्व समरन्त) = सब जोड़ संगत हो जाते हैं। वासनाओं के कारण शरीर में आ गयी सब शिथिलताएँ दूर हो जाती हैं।
भावार्थ - भावार्थ- मनुष्य को वासनाएँ खा जाती हैं। ज्ञान द्वारा इनका विनाश होता है। मनुष्य मितभुक् बनता है और दृढ़ अंगों (पर्वों) वाला होता है।
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