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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ न॒ इन्द्रो॑ दू॒रादा न॑ आ॒साद॑भिष्टि॒कृदव॑से यासदु॒ग्रः। ओजि॑ष्ठेभिर्नृ॒पति॒र्वज्र॑बाहुः स॒ङ्गे स॒मत्सु॑ तु॒र्वणिः॑ पृत॒न्यून् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । इन्द्रः॑ । दू॒रात् । आ । नः॒ । आ॒सात् । अ॒भि॒ष्टि॒ऽकृत् । अव॑से । या॒स॒त् । उ॒ग्रः । ओजि॑ष्ठेभिः । नृ॒ऽपतिः॑ । वज्र॑ऽबाहुः । स॒म्ऽगे । स॒मत्ऽसु॑ । पृ॒त॒न्यून् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ न इन्द्रो दूरादा न आसादभिष्टिकृदवसे यासदुग्रः। ओजिष्ठेभिर्नृपतिर्वज्रबाहुः सङ्गे समत्सु तुर्वणिः पृतन्यून् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। इन्द्रः। दूरात्। आ। नः। आसात्। अभिष्टिऽकृत्। अवसे। यासत्। उग्रः। ओजिष्ठेभिः। नृऽपतिः। वज्रऽबाहुः। सम्ऽगे। समत्ऽसु। तुर्वणिः। पृतन्यून् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (इन्द्रः) = शत्रु विद्रावक प्रभु (नः) = हमें (दूरात्) = दूर से (आयासत्) = प्राप्त हों। और (नः आसात्) = समीप से भी [आ-यासत्] प्राप्त हों। (अभिष्टिकृत्) = ये प्रभु हमारे शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले हैं। अवसे हमारे रक्षण के लिए होते हैं । (उग्रः) = तेजस्वी हैं । [२] ये (नृपतिः) = मनुष्यों के रक्षक (वज्रबाहुः) = बाहुओं में वज्र को लिये हुए प्रभु-निरन्तर गतिशील प्रभु [वज् गतौ] (समत्सु) = संग्रामों में (संगे) = शत्रुओं के साथ टक्कर होने पर (पृतन्यून्) = उन आक्रान्ता शत्रुओं को (तुर्वणिः) = त्वरा से पराजित करनेवाले हैं [तुद् वन्] अथवा हिंसित करनेवाले हैं [तुर्व हिंसायाम्] । वस्तुतः प्रभु ही हमारे शत्रुओं को विनष्ट करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ– वे तेजस्वी प्रभु हमें प्राप्त हों। वे ही शत्रुओं का विनाश करके हमारा रक्षण करते हैं।

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