ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
आ न॒ इन्द्रो॒ हरि॑भिर्या॒त्वच्छा॑र्वाची॒नोऽव॑से॒ राध॑से च। तिष्ठा॑ति व॒ज्री म॒घवा॑ विर॒प्शीमं य॒ज्ञमनु॑ नो॒ वाज॑सातौ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । इन्द्रः॑ । हरि॑ऽभिः । या॒तु॒ । अच्छ॑ । अ॒र्वा॒ची॒नः । अव॑से । राध॑से । च॒ । तिष्ठा॑ति । व॒ज्री । म॒घऽवा॑ । वि॒ऽर॒प्शी । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अनु॑ । नः॒ । वाज॑ऽसातौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ न इन्द्रो हरिभिर्यात्वच्छार्वाचीनोऽवसे राधसे च। तिष्ठाति वज्री मघवा विरप्शीमं यज्ञमनु नो वाजसातौ ॥२॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। इन्द्रः। हरिऽभिः। यातु। अच्छ। अर्वाचीनः। अवसे। राधसे। च। तिष्ठाति। वज्री। मघऽवा। विऽरप्शी। इमम्। यज्ञम्। अनु। नः। वाजऽसातौ ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
विषय - अवसे राधसे च
पदार्थ -
[१](इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु (नः) = हमें (हरिभिः) = उत्तम इन्द्रियाश्वों के साथ (अर्वाचीन:) अभिमुख प्राप्त होनेवाले होकर (आयातु) = आएँ । वे प्रभु हमारे (अवसे) = रक्षण के लिए हों च और राधसे कार्यों में सफलता के लिए हों। प्रभु द्वारा प्राप्त इन उत्तम इन्द्रियाश्वों से ही तो हम जीवनयात्रा को पूर्ण कर पाएँगे। [२] वे (वज्री) = क्रियाशीलता रूप वज्रवाले, (मघवा) = ऐश्वर्यशाली, (विरप्शी) = महान् व सब विज्ञानों का उपदेश देनेवाले वे प्रभु (वाजसातौ) = शक्ति को प्राप्त कराने के निमित्त (नः) = हमारे (इमं यज्ञं अनु) = इस जीवनयज्ञ को लक्ष्य करके (तिष्ठाति) = स्थित होते हैं। प्रभु के रक्षण से ही यह यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण होता है। प्रभुकृपा के बिना यज्ञ की पूर्ति सम्भव नहीं है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु हमें उत्तम इन्द्रियाश्वों के साथ प्राप्त हों। वे ही हमारा रक्षण करते हैं, वे ही हमें सफल बनाते हैं। वे ही इस जीवनयज्ञ को पूर्ण कराते हैं।
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