ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मं य॒ज्ञं त्वम॒स्माक॑मिन्द्र पु॒रो दध॑त्सनिष्यसि॒ क्रतुं॑ नः। श्व॒ध्नीव॑ वज्रिन्त्स॒नये॒ धना॑नां॒ त्वया॑ व॒यम॒र्य आ॒जिं ज॑येम ॥३॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । य॒ज्ञम् । त्वम् । अ॒स्माक॑म् । इ॒न्द्र॒ । पु॒रः । दध॑त् । स॒नि॒ष्य॒सि॒ । क्रतु॑म् । नः॒ । श्व॒घ्नीऽइ॑व । व॒ज्रि॒न् । स॒नये॑ । धना॑नाम् । त्वया॑ । व॒यम् । अ॒र्यः । आ॒जिम् । ज॒ये॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं यज्ञं त्वमस्माकमिन्द्र पुरो दधत्सनिष्यसि क्रतुं नः। श्वध्नीव वज्रिन्त्सनये धनानां त्वया वयमर्य आजिं जयेम ॥३॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। यज्ञम्। त्वम्। अस्माकम्। इन्द्र। पुरः। दधत्। सनिष्यसि। क्रतुम्। नः। श्वघ्नीऽइव। वज्रिन्। सनये। धनानाम्। त्वया। वयम्। अर्यः। आजिम्। जयेम ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
विषय - यज्ञों के पूरक प्रभु
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यसम्पन्न प्रभो ! (त्वम्) = आप (अस्माकम्) = हमारे (इमं यज्ञम्) = इस जीवन यज्ञ को (पुरः) = आगे और आगे (दधत्) = धारण करने के हेतु से (नः) = हमारे लिए (क्रतुम्) = शक्ति को (सनिष्यसि) = अवश्य देंगे ही। आपसे दी हुई इस शक्ति द्वारा ही हम जीवन-यज्ञ को पूर्ण कर पाते हैं। [२] हे (वज्रिन्) = क्रियाशीलता रूप वज्रवाले प्रभो ! (श्वघ्नी इव) = एक कितव [जुआरी] की तरह (वयम्) = हम (त्वया) = आपके साहाय्य से (अर्य:) = आपके स्तोता होते हुए (आजिम्) = स्पर्धा के लक्ष्य को [युद्ध को] (जयेम) = जीत जाएँ और (धनानां सनये) = धनों की प्राप्ति के लिए हों। 'श्वघ्नी इव' यह हीनोपमा है। जैसे एक कितव विजयी होकर धनों को प्राप्त करता है, हम आपके स्तवन से क्रियाशील होते हुए धनों का विजय करनेवाले बनें। इस जीवन संघर्ष में स्पर्धा करते हुए हम आगे बढ़ें, विजयी बनें और धनों को प्राप्त हों।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु से शक्ति प्राप्त करके हम यज्ञों को पूर्ण कर पाते हैं। आपका स्तवन करते हुए हम संग्राम में विजयी हों और धनों को प्राप्त करें ।
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