ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 27/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
गर्भे॒ नु सन्नन्वे॑षामवेदम॒हं दे॒वानां॒ जनि॑मानि॒ विश्वा॑। श॒तं मा॒ पुर॒ आय॑सीररक्ष॒न्नध॑ श्ये॒नो ज॒वसा॒ निर॑दीयम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठगर्भे॑ । नु । सन् । अनु॑ । ए॒षा॒म् । अ॒वे॒द॒म् । अ॒हम् । दे॒वाना॑म् । जनि॑मानि । विश्वा॑ । श॒तम् । मा॒ । पुरः॑ । आय॑सीः । अ॒र॒क्ष॒न् । अध॑ । श्ये॒नः । ज॒वसा॑ । निः । अ॒दी॒य॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भे नु सन्नन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि विश्वा। शतं मा पुर आयसीररक्षन्नध श्येनो जवसा निरदीयम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठगर्भे। नु। सन्। अनु। एषाम्। अवेदम्। अहम्। देवानाम्। जनिमानि। विश्वा। शतम्। मा। पुरः। आयसीः। अरक्षन्। अध। श्येनः। जवसा। निः। अदीयम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु के गर्भ में
पदार्थ -
[१] (गर्भे नु सन्) = उस प्रभु गर्भ में अब होता हुआ (अहम्) = मैं (एषाम्) = इन (देवानाम्) = देवों के (विश्वा) = सब (जनिमानि) = जन्मों को (अवेदम्) = जानता हूँ। 'प्रभु की उपासना में स्थित होना' ही 'प्रभु के गर्भ में स्थित होना' है। इससे जीवन में दिव्य गुणों का विकास होता है । [२] आज तक (मा) = मुझे (शतम्) = सैकड़ों (आयसी) = लोहमयी-बड़ी दृढ़ (पुरः) = शरीररूप नगरियों ने (अर क्षन्) = अपने अन्दर कैद करके रखा। (अध) = अब प्रभु की उपासना से (श्येन:) = शंसनीय गतिवाला होकर मैं (जवसा) = बड़े वेग से (निरदीम्) = इन से बाहर निकल गया हूँ, अर्थात् जन्म-मरणचक्र से ऊपर उठ गया हूँ ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की उपासना से दिव्यगुणों का विकास होता है और हम इन शरीर नगरियों में प्रवेश से बच जाते हैं-मुक्त हो जाते हैं ।
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