ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 26/ मन्त्र 7
आ॒दाय॑ श्ये॒नो अ॑भर॒त्सोमं॑ स॒हस्रं॑ स॒वाँ अ॒युतं॑ च सा॒कम्। अत्रा॒ पुर॑न्धिरजहा॒दरा॑ती॒र्मदे॒ सोम॑स्य मू॒रा अमू॑रः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽदाय॑ । श्ये॒नः । अ॒भ॒र॒त् । सोम॑म् । स॒हस्र॑म् । स॒वान् । अ॒युत॑म् । च॒ । सा॒कम् । अत्र॑ । पुर॑म्ऽधिः । अ॒ज॒हा॒त् । अरा॑तीः । मदे॑ । सोम॑स्य । मू॒राः । अमू॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदाय श्येनो अभरत्सोमं सहस्रं सवाँ अयुतं च साकम्। अत्रा पुरन्धिरजहादरातीर्मदे सोमस्य मूरा अमूरः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठआऽदाय। श्येनः। अभरत्। सोमम्। सहस्रम्। सवान्। अयुतम्। च। साकम्। अत्र। पुरम्ऽधिः। अजहात्। अरातीः। मदे। सोमस्य। मूराः। अमूरः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 7
विषय - सोमरक्षण व यज्ञ-प्रवणता
पदार्थ -
[१] (श्येन:) = शंसनीय गतिवाला यह जीव (सोमं आदाय) = सोमशक्ति का ग्रहण करके (सहस्रम्) = हजारों (च) = व (अयुतम्) = लाखों (सवान्) = यज्ञों को (साकम्) = साथ-साथ (अभरत्) = अपने में धारण करता है। यह अपने जीवन को यज्ञशील बनाता है। [२] (अत्रा) = यहाँ (सोमस्य मदे) = सोम के मद में हर्ष में (पुरन्धिः) = पालक व पूरक बुद्धिवाला यह (अमूर:) = संसार के विषयों में अमूढ़ बना हुआ यह श्येन (मूराः) = मूढ़ता के कारणभूत (अराती:) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को (अजहात्) = छोड़नेवाला होता है। सोमरक्षण से बुद्धि का वर्धन होता है, शक्ति के कारण गतिशीलता प्राप्त होती है। यह ज्ञानपूर्वक यज्ञों में प्रवृत्त होता हुआ पुरुष काम-क्रोध आदि को विनष्ट करता है।
भावार्थ - भावार्थ– सोमरक्षण से हम यज्ञप्रवण बन पाते हैं। काम-क्रोध आदि शत्रुओं को जीतकर हम अमूढ़ बनते हैं।प्रभु उपासन से किसी ऊँची स्थिति को प्राप्त करते हैं। इस बात का इस सूक्त में सुन्दर चित्रण है। इस उपासना के द्वारा अन्ततः हम इस जन्म मरण चक्र से ऊपर उठ जाते हैं। यही वर्णन अगले सूक्त में है—
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