ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
उ॒त वा॒जिनं॑ पुरुनि॒ष्षिध्वा॑नं दधि॒क्रामु॑ ददथुर्वि॒श्वकृ॑ष्टिम्। ऋ॒जि॒प्यं श्ये॒नं प्रु॑षि॒तप्सु॑मा॒शुं च॒र्कृत्य॑म॒र्यो नृ॒पतिं॒ न शूर॑म् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । वा॒जिन॑म् । पु॒रु॒निः॒ऽसिध्वा॑नम् । द॒धि॒ऽक्राम् । ऊँ॒ इति॑ । द॒द॒थुः॒ । वि॒श्वऽकृ॑ष्टिम् । ऋ॒जि॒प्यम् । श्ये॒नम् । प्रु॒षि॒तऽप्सु॑म् । आ॒शुम् । च॒र्कृत्य॑म् । अ॒र्यः । नृ॒ऽपति॑म् । न । शूर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत वाजिनं पुरुनिष्षिध्वानं दधिक्रामु ददथुर्विश्वकृष्टिम्। ऋजिप्यं श्येनं प्रुषितप्सुमाशुं चर्कृत्यमर्यो नृपतिं न शूरम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठउत। वाजिनम्। पुरुनिःऽसिध्वानम्। दधिऽक्राम्। ऊम् इति। ददथुः। विश्वऽकृष्टिम्। ऋजिप्यम्। श्येनम्। प्रुषितऽप्सुम्। आशुम्। चर्कृत्यम्। अर्यः। नृऽपतिम्। न। शूरम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
विषय - स्वस्थ मन
पदार्थ -
[१] (उत) = और (उ) = निश्चय से हे द्यावापृथिवी! आप हमारे लिए (दधिक्राम्) = उस मन को (दस्युः) = देते हो, जो कि (वाजिनम्) = शक्तिशाली है, (पुरुनिष्षिध्वानम्) = खूब ही वासनाओं का निषेध करनेवाला है, (विश्वकृष्टिम्) = सब मनुष्यों के हित की भावना को अपने में धारण करनेवाला है, (ऋजिप्यम्) = ऋजु मार्ग से गति करता हुआ हमारा वर्धन करनेवाला है [प्या वृद्धौ] । [२] उस मन को आप हमें देते हो, जो कि (श्येनम्) = शंसनीय गतिवाला है, (प्रुषितप्सुम्) = दीप्तरूपवाला है, (आशुम्) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाला है। (अर्यः) = [अरेः] काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का (चकृत्यम्) = [कर्तनशीलम्] काटनेवाला, छेदन करनेवाला है। (नृपतिं न) = मनुष्यों के रक्षक राजा की तरह शूरम् शूरवीर है। राजा जैसे शत्रुओं का पराजय करके प्रजाओं का कल्याण करता है, उसी प्रकार जो मन काम-क्रोधादि को छेदन करता हुआ हमारा कल्याण करता है, ऐसे मन को ये द्यावापृथिवी हमारे लिए दें। जैसे द्युलोक व पृथिवीलोक के मध्य में अन्तरिक्षलोक है, इसी प्रकार यहाँ हमारे जीवनों में मस्तिष्क व स्थूल शरीर के मध्य में मन है। स्वस्थ मस्तिष्क व स्वस्थ शरीर से मन भी बड़ा स्वस्थ बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- स्वस्थ मस्तिष्क व स्वस्थ शरीर मिलकर स्वस्थ मन को जन्म देते हैं ।
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