ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 3
यं सी॒मनु॑ प्र॒वते॑व॒ द्रव॑न्तं॒ विश्वः॑ पू॒रुर्मद॑ति॒ हर्ष॑माणः। प॒ड्भिर्गृध्य॑न्तं मेध॒युं न शूरं॑ रथ॒तुरं॒ वात॑मिव॒ ध्रज॑न्तम् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठयम् । सी॒म् । अनु॑ । प्र॒वता॑ऽइव । द्रव॑न्तम् । विश्वः॑ । पू॒रुः । मद॑ति । हर्ष॑माणः । प॒ट्ऽभिः । गृध्य॑न्तम् । मे॒ध॒ऽयुम् । न । शूर॑म् । र॒थ॒ऽतुर॑म् । वात॑म्ऽइव । ध्रज॑न्तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं सीमनु प्रवतेव द्रवन्तं विश्वः पूरुर्मदति हर्षमाणः। पड्भिर्गृध्यन्तं मेधयुं न शूरं रथतुरं वातमिव ध्रजन्तम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठयम्। सीम्। अनु। प्रवताऽइव। द्रवन्तम्। विश्वः। पूरुः। मदति। हर्षमाणः। पट्ऽभिः। गृध्यन्तम्। मेधऽयुम्। न। शूरम्। रथऽतुरम्। वातम्ऽइव। ध्रजन्तम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
विषय - 'तीव्र गतिवाला' मन
पदार्थ -
[१] (प्रवता इव द्रवन्तम्) = निम्न मार्ग से जाते हुए पानी की तरह शीघ्र गतिवाले (यं अनु) = जिस मन के अनुसार (विश्व: पूरु:) = सब अपना पालन व पूरण करनेवाले मनुष्य (हर्षमाणः) = प्रसन्नता का अनुभव करते हुए (सीम्) = निश्चय से (मदति) = स्तुति करते हैं। ऐसे मन को द्यावापृथिवी हमारे लिए दें। मन निम्न मार्ग से बहते हुए पानी की तरह तीव्र गतिवाला है। इस मन को वश में करके हम आनन्द का अनुभव करते हैं और प्रभु के स्तवन की वृत्तिवाले बनते हैं। [२] उस मन को ये द्यावापृथिवी हमारे लिए दें जो कि (पड्भिः गृध्यन्तम्) = [पद् गतौ] गतियों से विविध पदार्थों के ग्रहण की कामनावाला है। जो मन 'मेधयुं न शूरं' संग्रामेच्छु शूरवीर के समान है। संग्रामेच्छु शूरवीर संपत्तियों को प्राप्त करता हुआ तृप्त नहीं। यह मन भी तृप्त नहीं होता। (रथतुरम्) = शरीररूप रथ को तीव्रगति से इधर-उधर ले जाता है। (वातं इव ध्रजन्तम्) = वायु के समान शीघ्र गतिवाला है। इस मन को अपने वश में करके हम जीवनयात्रा में सफलतापूर्वक लक्ष्य स्थान पर पहुँचनेवाले हों।
भावार्थ - भावार्थ- मन तीव्र गतिवाला है, शक्तिशाली है। यदि यह हमें प्राप्त हो जाता है, तो हम अवश्य जीवनयात्रा को सफलतापूर्वक पूरा कर पाते हैं।
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