ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यो अश्व॑स्य दधि॒क्राव्णो॒ अका॑री॒त्समि॑द्धे अ॒ग्ना उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ। अना॑गसं॒ तमदि॑तिः कृणोतु॒ स मि॒त्रेण॒ वरु॑णेना स॒जोषाः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठयः । अश्व॑स्य । द॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । अका॑रीत् । सम्ऽइ॑द्धे । अ॒ग्नौ । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टौ । अना॑गसम् । तम् । अदि॑तिः । कृ॒णो॒तु॒ । सः । मि॒त्रेण॑ । वरु॑णेन । स॒ऽजोषाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अश्वस्य दधिक्राव्णो अकारीत्समिद्धे अग्ना उषसो व्युष्टौ। अनागसं तमदितिः कृणोतु स मित्रेण वरुणेना सजोषाः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठयः। अश्वस्य। दधिऽक्राव्णः। अकारीत्। सम्ऽइद्धे। अग्नौ। उषसः। विऽउष्टौ। अनागसम्। तम्। अदितिः। कृणोतु। सः। मित्रेण। वरुणेन। सऽजोषाः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
विषय - मित्रेण वरुणेना सजोषाः [सस्नेह व निर्दोष मन]
पदार्थ -
[१] (यः) = जो (उषसः व्युष्टौ) = उष:काल के होते ही (अग्ना समिद्धे) = यज्ञाग्नि के दीप्त करने पर (अश्वस्य) = मार्गों का व्यापन करनेवाले [अश् व्याप्तौ] (दधिक्राव्णः) = इस हमारा धारण करके क्रमण करनेवाले मन की (अकरीत्) = स्तुति करता है, (तम्) = उसे (अदितिः) = यह विषयों से खण्डित न होनेवाला मन (अनागसं कृणोतु) = निष्पाप बनाए । मन अश्व है- शीघ्रता से देश - देशान्तर का व्यापन करनेवाला है। यह दधिक्रावा है- हमारा धारण करता हुआ जीवन-मार्ग में आगे बढ़ता है। हमें चाहिए कि हम उषा के होते ही यज्ञादि उत्तम कर्मों में इसे प्रवृत्त करें। यही इसका स्तवन है, यही इसे विषयों से बचाने का मार्ग है। यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहने पर यह 'अदिति' बनता है और हमें निष्पाप बनाता है। [२] (सः) = वह (मित्रेण) = मित्र से व (वरुणेन) = वरुण से (सजोषा:) = समानरूप से प्रीतिवाला होता है। मित्र व वरुण से संगत हुआ हुआ यह मन सदा स्नेहवाला [मित्र] व द्वेष की भावना से रहित [वरुण] होता है ।
भावार्थ - भावार्थ- मन को उषा के होते ही यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त करना चाहिए, तभी यह विषयों से न खण्डित हुआ-हुआ, सस्नेह व निर्देष बना रहता है और हमें निष्पाप जीवनवाला बनाता है।
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