ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
द॒धि॒क्राव्ण॑ इ॒ष ऊ॒र्जो म॒हो यदम॑न्महि म॒रुतां॒ नाम॑ भ॒द्रम्। स्व॒स्तये॒ वरु॑णं मि॒त्रम॒ग्निं हवा॑मह॒ इन्द्रं॒ वज्र॑बाहुम् ॥४॥
स्वर सहित पद पाठद॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । इ॒षः । ऊ॒र्जः । म॒हः । यत् । अम॑न्महि । म॒रुता॑म् । नाम॑ । भ॒द्रम् । स्व॒स्तये॑ । वरु॑णम् । मि॒त्रम् । अ॒ग्निम् । हवा॑महे । इन्द्र॑म् । वज्र॑ऽबाहुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दधिक्राव्ण इष ऊर्जो महो यदमन्महि मरुतां नाम भद्रम्। स्वस्तये वरुणं मित्रमग्निं हवामह इन्द्रं वज्रबाहुम् ॥४॥
स्वर रहित पद पाठदधिऽक्राव्णः। इषः। ऊर्जः। महः। यत्। अमन्महि। मरुताम्। नाम। भद्रम्। स्वस्तये। वरुणम्। मित्रम्। अग्निम्। हवामहे। इन्द्रम्। वज्रऽबाहुम् ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
विषय - 'वरुण-मित्र - अग्नि व इन्द्र' को पुकारना
पदार्थ -
[१] हम (दधिक्राव्णः) = इस धारण करके गति करनेवाले (इषः) = प्रभु की प्रेरणा प्राप्त करनेवाले, (ऊर्ज:) = बल व प्राण शक्ति से सम्पन्न (महः) = महान् मन का (यद्) = जब (अमन्महि) = स्तवन करते हैंइस मन का महत्त्व समझकर इसे अपने वश में करने का प्रयत्न करते हैं, तो (मरुताम्) = मनुष्यों का (भद्रं नाम) = निश्चय से कल्याण होता है। वशीभूत मन ही कल्याण का साधक है। [२] (स्वस्तये) = कल्याणप्राप्ति के लिए हम (वरुणम्) = वरुण को, (मित्रम्) = मित्र को, (अग्निम्) = अग्नि को (हवामहे) = पुकारते हैं। (वज्रबाहुम्) = वज्र को हाथ में लिए हुए (इन्द्रम्) = इन्द्र को पुकारते हैं। 'मित्र को पुकारना' अर्थात् मन को (सस्नेह) = बनाने का प्रयत्न करना । 'वरुण को पुकारना' अर्थात् मन को निर्देष बनाना। 'अग्नि को पुकारना' अर्थात् सदा आगे बढ़ने की भावनावाला होना। और 'वज्रबाहु इन्द्र को पुकारना' अर्थात् सदा क्रियाशील हाथोंवाला जितेन्द्रिय बनना, कर्मों में लगे रहना और इन्द्रियों को विषयों में नहीं फँसने देना। इस प्रकार 'वरुण, मित्र, अग्नि व वज्रबाहु इन्द्र' बनना ही कल्याण का मार्ग है।
भावार्थ - भावार्थ- हम मन का महत्त्व समझें। इसे वश में करके अपना कल्याण सिद्ध करें। निद्वेष,सस्नेह, प्रगतिशील व कर्मठ जितेन्द्रिय बनकर कल्याण-मार्ग का अनुसरण करें।
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