ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 5
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्र॑मि॒वेदु॒भये॒ वि ह्व॑यन्त उ॒दीरा॑णा य॒ज्ञमु॑पप्र॒यन्तः॑। द॒धि॒क्रामु॒ सूद॑नं॒ मर्त्या॑य द॒दथु॑र्मित्रावरुणा नो॒ अश्व॑म् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म्ऽइव । इत् । उ॒भये॑ । वि । ह्व॒य॒न्ते॒ । उ॒त्ऽईरा॑णाः । य॒ज्ञम् । उ॒प॒ऽप्र॒यन्तः॑ । द॒धि॒ऽक्राम् । ऊँ॒ इति॑ । सूद॑नम् । मर्त्या॑य । द॒दथुः॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । नः॒ । अश्व॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमिवेदुभये वि ह्वयन्त उदीराणा यज्ञमुपप्रयन्तः। दधिक्रामु सूदनं मर्त्याय ददथुर्मित्रावरुणा नो अश्वम् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम्ऽइव। इत्। उभये। वि। ह्वयन्ते। उत्ऽईराणाः। यज्ञम्। उपऽप्रयन्तः। दधिऽक्राम्। ऊम् इति। सूदनम्। मर्त्याय। ददथुः। मित्रावरुणा। नः। अश्वम् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
विषय - युद्धों व यज्ञों में सफलता का साधक मन
पदार्थ -
[१] (इत्) = निश्चय से (उदीराणाः) = युद्ध के लिए उद्योग करते हुए और (यज्ञं उपप्रयन्तः) = यज्ञ को समीपता से प्राप्त होते हुए (उभये) = दोनों ही (इन्द्रं इव) = जैसे प्रभु को (विह्वयन्ते) = पुकारते हैं, इसी प्रकार वे (दधिक्राम्) = हमारा धारण करके गति करनेवाले इस मन को (उ) = भी पुकारते हैं। यह मन ही उन्हें युद्धों में विजयी बनाता है और यज्ञों में सफल करता है। [२] मित्रावरुणा मित्र और वरुण (न:) = हमारे लिए (अश्वम्) = इस मनरूप अश्व को (ददथुः) = देते हैं, जो कि (मर्त्याय) = मनुष्य के लिए (सूदनम्) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाला है। जिस समय मनुष्य मन में स्नेह [मित्र] व निर्देषता [वरुण] की भावना को भरता है, उस समय सब आसुरभावों से ऊपर उठकर पवित्र भावनाओंवाला बनता है।
भावार्थ - भावार्थ- युद्धों व यज्ञों में सफलता इस मन द्वारा ही प्राप्त होती है। यह मन ही प्रेम व निर्देषता के भाव से युक्त होकर सब आसुरभावों से दूर होता है।
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