ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
अका॑रि॒ ब्रह्म॑ समिधान॒ तुभ्यं॒ शंसा॑त्यु॒क्थं यज॑ते॒ व्यू॑ धाः। होता॑रम॒ग्निं मनु॑षो॒ नि षे॑दुर्नम॒स्यन्त॑ उ॒शिजः॒ शंस॑मा॒योः ॥११॥
स्वर सहित पद पाठअका॑रि । ब्रह्म॑ । स॒म्ऽइ॒धा॒न॒ । तुभ्य॑म् । शंसा॑ति । उ॒क्थम् । यज॑ते । वि । ऊँ॒ इति॑ । धाः॒ । होता॑रम् । अ॒ग्निम् । मनु॑षः । नि । से॒दुः॒ । न॒म॒स्यन्तः॑ । उ॒शिजः॑ । शंस॑म् । आ॒योः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अकारि ब्रह्म समिधान तुभ्यं शंसात्युक्थं यजते व्यू धाः। होतारमग्निं मनुषो नि षेदुर्नमस्यन्त उशिजः शंसमायोः ॥११॥
स्वर रहित पद पाठअकारि। ब्रह्म। सम्ऽइधान। तुभ्यम्। शंसाति। उक्थम्। यजते। वि। ऊम् इति। धाः। होतारम्। अग्निम्। मनुषः। नि। सेदुः। नमस्यन्तः। उशिजः। शंसम्। आयोः॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 6
विषय - ज्ञानस्तवन-यज्ञ
पदार्थ -
(१) हे (समिधान) = हृदय देश को दीप्त करनेवाले प्रभो ! (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिये (ब्रह्म अकारि) = हमारे से ज्ञान प्राप्त किया जाता है। ज्ञान ही तो आपकी प्राप्ति का मुख्य साधन है। आपकी प्राप्ति के लिये ही स्तोता उक्थम् स्तोत्र का शंसाति-शंसन करता है। इसी उद्देश्य से यजमान (यजते) = यज्ञ करता है। आप (ऊ) = निश्चय से (विधा:) - इन सबके लिये धनों का धारण करते हैं, इनके योगक्षेम को चलाते हैं । (२) (मनुषः) = विचारशील उशिजः प्रभुप्राप्ति की कामनावाले पुरुष होतारम् - सब कुछ देनेवाले (आयोः शंसम्) = मनुष्य के शंसनीय (अग्निम्) = उस प्रभु को [नमस्यन्तः] = पूजित करते हुए (निषेदुः) = उपासना में बैठते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ-प्रभुप्राप्ति के लिये [क] ज्ञान, [ख] स्तवन, [ग] यज्ञ साधनरूप हैं। उस प्रभु का प्रतिदिन उपासन करना ही चाहिए। प्रभु की उपासना से चलनेवाले सुन्दर जीवन का सारे सूक्त में चित्रण है। अगले सूक्त में कहते हैं कि जीवन के सौन्दर्य के लिये प्रभु ही उपास्य है
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