ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 9/ मन्त्र 8
परि॑ ते दू॒ळभो॒ रथो॒ऽस्माँ अ॑श्नोतु वि॒श्वतः॑। येन॒ रक्ष॑सि दा॒शुषः॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । ते॒ । दुः॒ऽदभः॑ । रथः॑ । अ॒स्मान् । अ॒श्नो॒तु॒ । वि॒श्वतः॑ । येन॑ । रक्ष॑सि । दा॒शुषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि ते दूळभो रथोऽस्माँ अश्नोतु विश्वतः। येन रक्षसि दाशुषः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठपरि। ते। दुःऽदभः। रथः। अस्मान्। अश्नोतु। विश्वतः। येन। रक्षसि। दाशुषः॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 9; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 8
विषय - अहिंसित शरीर-रथ
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (ते) = आपका वह (दूडभः) = हिंसित न होनेवाला (रथः) = शरीर-रथ (अस्मान्) = हमें (विश्वत:) = सब ओर से (परि अश्नोतु) = व्याप्त करनेवाला हो। हमें वह शरीर-रथ प्राप्त हो जो कि रोगों व वासनाओं से हिंसित नहीं होता । [२] यह शरीर-रथ वह है (येन) = जिससे (दाशुषः रक्षसि) = हे प्रभो ! आप दाश्वान् का रक्षण करते हैं, जो भी प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता है, प्रभु से वह उत्तम शरीर-रथ प्राप्त कराते हुआ अपना रक्षण कर पाता है।
भावार्थ - भावार्थ- उपासक को प्रभु रोगों व वासनाओं से हिंसित न होनेवाला शरीर रथ प्राप्त कराते अगले सूक्त में भी 'अग्नि' नाम से प्रभु का आराधन करते हैं -
इस भाष्य को एडिट करें