ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
ए॒वाँ अ॒ग्निम॑जुर्यमुर्गी॒र्भिर्य॒ज्ञेभि॑रानु॒षक्। दध॑द॒स्मे सु॒वीर्य॑मु॒त त्यदा॒श्वश्व्य॒मिषं॑ स्तो॒तृभ्य॒ आ भ॑र ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । अ॒ग्निम् । अ॒जु॒र्य॒मुः॒ । गीः॒ऽभिः । य॒ज्ञेभिः॑ । आ॒नु॒षक् । दध॑त् । अ॒स्मे इति॑ । सु॒ऽवीर्य॑म् । उ॒त । त्यत् । आ॒शु॒ऽअश्व्य॑म् । इष॑म् । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । आ । भ॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवाँ अग्निमजुर्यमुर्गीर्भिर्यज्ञेभिरानुषक्। दधदस्मे सुवीर्यमुत त्यदाश्वश्व्यमिषं स्तोतृभ्य आ भर ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठएव। अग्निम्। अजुर्यमुः। गीःऽभिः। यज्ञेभिः। आनुषक्। दधत्। अस्मे इति। सुऽवीर्यम्। उत। त्यत्। आशुऽअश्व्यम्। इषम्। स्तोतृऽभ्यः। आ। भर ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
विषय - गीर्भि:- यज्ञेभिः
पदार्थ -
[१] (एवा) = इस प्रकार (गीर्भिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा स्तुतियों से तथा (आनुषक्) = निरन्तर (यज्ञेभिः) = यज्ञों से उपासक लोग (अग्निं अजुः) = उस प्रभु की ओर जाते हैं और (यमुः) = उस प्रभु को अपने में स्थापित करते हैं। [२] प्रभु को प्राप्त करने के लिये यही मार्ग है कि हम ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान की वाणियों का ग्रहण करें [गीर्भिः] कर्मेन्द्रियों यज्ञों को करनेवाले हों [यज्ञेभिः] । ऐसा करने पर वे प्रभु (अस्मे) = हमारे लिये (सुवीर्यं दधत्) = उत्तम वीर्य को धारण करते हैं। (उत) = और (त्यत्) = उस (आशु) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले (अश्व्यम्) = इन्द्रियाश्व समूह को धारण करते हैं। हे प्रभो ! (स्तोतृभ्यः) = इन गिराओं व यज्ञों को अपनानेवाले स्तोताओं के लिये आप (इषम्) = प्रेरणा को (आभर)= प्राप्त कराइये ।
भावार्थ - भावार्थ- हम ज्ञानवाणियों व यज्ञों से प्रभु को प्राप्त हों । प्रभु हमें सुवीर्य व स्फूर्ति से क्रियाओं को करनेवाली इन्द्रियों को प्राप्त करायें।
- सूचना - इस सूक्त में १० बार 'इषं स्तोतृभ्य आभर' यह वाक्य आवृत्त हुआ है। 'दसों की दसों इन्द्रियाँ उत्तम मार्ग पर ही प्रेरित हों' ऐसा इसका संकेत है। इन प्रेरणाओं के अनुसार चलनेवाला ऋषि 'इषः' कहलाता है, प्रेरणामय जीवन वाला। यह आत्रेय तो है ही, त्रिविध दुःखों से ऊपर उठा हुआ व काम-क्रोध-लोभ से दूर। यह कहता है -
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