ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 6
त्वाम॑ग्ने समिधा॒नं य॑विष्ठ्य दे॒वा दू॒तं च॑क्रिरे हव्य॒वाह॑नम्। उ॒रु॒ज्रय॑सं घृ॒तयो॑नि॒माहु॑तं त्वे॒षं चक्षु॑र्दधिरे चोद॒यन्म॑ति ॥६॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइ॒धा॒नम् । य॒वि॒ष्ठ्य॒ । दे॒वाः । दू॒तम् । च॒क्रि॒रे॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑नम् । उ॒रु॒ऽज्रय॑सम् । घृ॒तऽयो॑निम् । आऽहु॑तम् । त्वे॒षम् । चक्षुः॑ । द॒धि॒रे॒ । चो॒द॒यत्ऽम॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने समिधानं यविष्ठ्य देवा दूतं चक्रिरे हव्यवाहनम्। उरुज्रयसं घृतयोनिमाहुतं त्वेषं चक्षुर्दधिरे चोदयन्मति ॥६॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। सम्ऽइधानम्। यविष्ठ्य। देवाः। दूतम्। चक्रिरे। हव्यऽवाहनम्। उरुऽज्रयसम्। घृतऽयोनिम्। आऽहुतम्। त्वेषम्। चक्षुः। दधिरे। चोदयत्ऽमति ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 6
विषय - चक्षुः-चोदयन्मति
पदार्थ -
[१] हे (यविष्ठ्य) = बुराइयों को हमारे से दूर करनेवाले व अच्छाइयों को हमारे से मिलानेवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष (त्वां चक्रिरे) = आपको ही अपने हृदयों में स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। जो आप (समिधानम्) = सम्यग् ज्ञान से दीप्त हैं, (दूतम्) = ज्ञान-सन्देश को प्राप्त करानेवाले हैं, (हव्यवाहनम्) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं। [२] आपको विद्वान् पुरुष (चक्षुः दधिरे) = आँख के रूप में धारण करते हैं, आपके द्वारा ही प्रकाश को प्राप्त करते हैं। जो आप (उरुज्रयसम्) = बड़े वेगवाले हैं। (घृतयोनिम्) = ज्ञानदीप्ति के उत्पत्ति स्थान हैं । (आहुतम्) = चारों ओर दानोंवाले हैं [आ हुतं यस्य] (त्वेषम्) = दीप्त हैं तथा (चोदयन्मति) = हमारी बुद्धियों को प्रेरणा देनेवाले हैं।
भावार्थ - भावार्थ – प्रभु ही ज्ञान-सन्देश प्राप्त करानेवाले हैं, प्रभु ही हमारी आँख हैं, हमारी बुद्धियों को सत्प्रेरणा देनेवाले हैं ।
इस भाष्य को एडिट करें