ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
त्वाम॑ग्ने प्र॒दिव॒ आहु॑तं घृ॒तैः सु॑म्ना॒यवः॑ सुष॒मिधा॒ समी॑धिरे। स वा॑वृधा॒न ओष॑धीभिरुक्षि॒तो॒३॒॑भि ज्रयां॑सि॒ पार्थि॑वा॒ वि ति॑ष्ठसे ॥७॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । प्र॒ऽदिवः॑ । आऽहु॑तम् । घृ॒तैः । सु॒म्न॒ऽयवः॑ । सु॒ऽस॒मिधा॑ । सम् । ई॒धि॒रे॒ । सः । व॒वृ॒धा॒नः । ओष॑धीऽभिः । उ॒क्षि॒तः । अ॒भि । ज्रयां॑सि । पार्थि॑वा । वि । ति॒ष्ठ॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने प्रदिव आहुतं घृतैः सुम्नायवः सुषमिधा समीधिरे। स वावृधान ओषधीभिरुक्षितो३भि ज्रयांसि पार्थिवा वि तिष्ठसे ॥७॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। प्रऽदिवः। आऽहुतम्। घृतैः। सुम्नऽयवः। सुऽसमिधा। सम्। ईधिरे। सः। ववृधानः। ओषधीभिः। उक्षितः। अभि। ज्रयांसि। पार्थिवा। वि। तिष्ठसे ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 7
विषय - प्रदिवः - सुम्नायवः
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (आहुतम्) = चारों ओर दानोंवाले (त्वाम्) = आपको (प्रदिवः) = प्रकृष्ट द्युतिवाले, (सुम्नायवः) = स्तोत्रों को अपनाने की कामनावाले उपासक सुषमिधा उत्तम ज्ञान दीप्ति के द्वारा (समीधिरे) = अपने अन्दर समिद्ध करते हैं। प्रभु दर्शन का उपाय 'ज्ञान- स्तवन' ही है। [२] हे प्रभो ! (सः) = वे आप (वावृधान:) = खूब ही हमारा वर्धन करते हुए, (ओषधीभिः उक्षितः) = ओषधियों के द्वारा हृदयों में सिक्त हुए हुए [प्रभु-दर्शन के लिये वानस्पतिक भोजन ही ठीक है] (पार्थिवा ज्रयांसि) = सब पृथिवी सम्बन्धी विजयों के [ज्रि= to conquer] (अभि वि तिष्ठसे) = अधिष्ठाता होते हैं । अर्थात् आपके द्वारा ही सब पार्थिव विजयें प्राप्त होती हैं। इस पृथ्वीरूप शरीर में होनेवाली सब विजयें आप ही करते हैं 'जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्' ।
भावार्थ - भावार्थ- ज्ञान व स्तवन के समन्वय से हम प्रभु को हृदयों में समिद्ध करें। प्रभु प्राप्ति के वानस्पतिक भोजनों को अपनाएँ । प्रभु ही हमें सब विजयों को प्राप्त करायेंगे । इस सूक्त के सातों मन्त्र 'त्वाम' इस प्रकार प्रारम्भ होते हैं। केवल पञ्चम मन्त्र का 'त्वमग्ने' इस प्रकार प्रारम्भ हुआ है। प्रभु के उपासन से यह उपासक प्राणशक्ति सम्पन्न बनता है, सो 'गय' है यह 'आत्रेय' तो है ही, काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठा हुआ। यह कहता है कि -
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