ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 2
वि वृ॒क्षान् ह॑न्त्यु॒त ह॑न्ति र॒क्षसो॒ विश्वं॑ बिभाय॒ भुव॑नं म॒हाव॑धात्। उ॒ताना॑गा ईषते॒ वृष्ण्या॑वतो॒ यत्प॒र्जन्यः॑ स्त॒नय॒न् हन्ति॑ दु॒ष्कृतः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठवि । वृ॒क्षान् । ह॒न्ति॒ । उ॒त । ह॒न्ति॒ । र॒क्षसः॑ । विश्व॑म् । बि॒भा॒य॒ । भुव॑नम् । म॒हाऽव॑धात् । उ॒त । अना॑गाः । ई॒ष॒ते॒ । वृष्ण्य॑ऽवतः । यत् । प॒र्जन्यः॑ । स्त॒नय॑न् । हन्ति॑ । दुः॒ऽकृतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि वृक्षान् हन्त्युत हन्ति रक्षसो विश्वं बिभाय भुवनं महावधात्। उतानागा ईषते वृष्ण्यावतो यत्पर्जन्यः स्तनयन् हन्ति दुष्कृतः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठवि। वृक्षान्। हन्ति। उत। हन्ति। रक्षसः। विश्वम्। बिभाय। भुवनम्। महाऽवधात्। उत। अनागाः। ईषते। वृष्ण्यऽवतः। यत्। पर्जन्यः। स्तनयन्। हन्ति। दुःऽकृतः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
विषय - 'वृक्ष व राक्षस' विनाश
पदार्थ -
[१] गतमन्त्र के अनुसार जब हम प्रभु का स्तवन करते हैं, तो (वृक्षान् विहन्ति) = [व्रश्चतेः वृक्षः] काट देने योग्य रोग आदि को वे नष्ट करते हैं। (उत) = और (रक्षसः) = हृदयस्थ राक्षसी भावों को भी वे विनष्ट करते हैं। उस समय (महावधात्) = उस महान् वध को करनेवाले प्रभु से (विश्वं बिभाय) = सब हमारे न चाहते हुए भी हमारे अन्दर प्रविष्ट हो जानेवाले रोग व आसुरभाव भयभीत हो उठते हैं। [२] (उत) = और (अनागा:) = निष्पाप व्यक्ति उस समय (वृष्ण्यावतः) = शक्तिशाली शत्रुओं को (ईषते) = नष्ट करनेवाला होता है (यत्) = जब कि (पर्जन्यः) = यह ('परो जेता') = महान् विजेता प्रभु (स्तनयन्) = गर्जना करते हुए, वेदवाणियों का उच्चारण करते हुए (दृष्कृतः हन्ति) = सब पापियों का विनाश कर देते हैं। प्रभु ज्ञान को देकर अज्ञानजन्य अपराधों को समाप्त कर देते हैं और इस प्रकार यह प्रभु का उपासक निष्पाप जीवनवाला बनकर शक्तिशाली शत्रुओं का भी शातन करनेवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु स्मरण से रोग व राक्षसीभाव विनष्ट हो जाते हैं। यह उपासक शक्तिशाली शत्रुओं को भी शीर्ण करता है। प्रभु की ज्ञानवाणियाँ उसे ऐसा करने में समर्थ करती हैं ।
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