ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 83/ मन्त्र 3
र॒थीव॒ कश॒याश्वाँ॑ अभिक्षि॒पन्ना॒विर्दू॒तान्कृ॑णुते व॒र्ष्याँ॒३॒॑ अह॑। दू॒रात्सिं॒हस्य॑ स्त॒नथा॒ उदी॑रते॒ यत्प॒र्जन्यः॑ कृणु॒ते व॒र्ष्यं१॒॑ नभः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठर॒थीऽइ॑व । कश॑या । अश्वा॑न् । अ॒भि॒ऽक्षि॒पन् । आ॒विः । दू॒तान् । कृ॒णु॒ते॒ । व॒र्ष्या॑न् । अह॑ । दू॒रात् । सिं॒हस्य॑ । स्त॒नथाः॑ । उत् । ई॒र॒ते॒ । यत् । प॒र्जन्यः॑ । कृ॒णु॒ते । व॒र्ष्य॑म् । नभः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथीव कशयाश्वाँ अभिक्षिपन्नाविर्दूतान्कृणुते वर्ष्याँ३ अह। दूरात्सिंहस्य स्तनथा उदीरते यत्पर्जन्यः कृणुते वर्ष्यं१ नभः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठरथीऽइव। कशया। अश्वान्। अभिऽक्षिपन्। आविः। दूतान्। कृणुते। वर्ष्यान्। अह। दूरात्। सिंहस्य। स्तनथाः। उत्। ईरते। यत्। पर्जन्यः। कृणुते। वर्ष्यम्। नभः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 83; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
विषय - 'मेघों के प्रेरक' प्रभु
पदार्थ -
[१] (इव) = जिस प्रकार (रथी) = रथ का स्वामी (कशया) = चाबुक से (अश्वान्) = घोड़ों को (अभिक्षिपन्) = चारों ओर प्रेरित करता है, इसी प्रकार वे (पर्जन्य:) = महान् विजेता प्रभु (अह) = निश्चय से (वर्ष्यान् दूतान्) = वृष्टि को करनेवाले मेघों के प्रेरक मरुतों को, वायुओं को (आविः कृणुते) = प्रकट करते हैं। [२] (यत्) = जब (पर्जन्य:) = वे परातृप्ति के जनक प्रभु (नभः) = आकाश को (वर्ष्यम्) = वृष्टि के लिये उद्यत (कृणुते) = करते हैं तो (दूरात्) = उस दूर देश से (सिंहस्य) = वर्षण के द्वारा दुर्भिक्ष के विनाशक मेघरूप सिंह के (स्तनथा:) = गर्जन (उदीरते) = उद्गत होते हैं। आकाश में बादल शेर के समान गर्जता है और वर्षण के द्वारा दुर्भिक्ष आदि का विनाश करनेवाला बनता है।
भावार्थ - भावार्थ— जैसे रथी चाबुक से घोड़ों को प्रेरित करता है, उसी प्रकार प्रभु आकाश में वृष्टिवाहक वायुओं को प्रेरित करते हैं। जब कभी प्रभु आकाश को वृष्टि के अभिमुख करते हैं तो मेघरूप सिंहों की गर्जना सुन पड़ती है।
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