ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
त्वाम॑ग्ने ह॒विष्म॑न्तो दे॒वं मर्ता॑स ईळते। मन्ये॑ त्वा जा॒तवे॑दसं॒ स ह॒व्या व॑क्ष्यानु॒षक् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । ह॒विष्म॑न्तः । दे॒वम् । मर्ता॑सः । ई॒ळ॒ते॒ । मन्ये॑ । त्वा॒ । जा॒तऽवे॑दसम् । सः । ह॒व्या । व॒क्षि॒ । आ॒नु॒षक् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने हविष्मन्तो देवं मर्तास ईळते। मन्ये त्वा जातवेदसं स हव्या वक्ष्यानुषक् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। हविष्मन्तः। देवम्। मर्तासः। ईळते। मन्ये। त्वा। जातऽवेदसम्। सः। हव्या। वक्षि। आनुषक् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - जातवेदस् प्रभु की उपासना
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (देवं त्वाम्) = प्रकाशमय आपको (हविष्मन्त:) = हविवाले, दानपूर्वक अदन करनेवाले, यज्ञशेष का सेवन करनेवाले, (मर्तासः) = लोग (ईडते) = उपासित करते हैं। प्रभु की सच्ची उपासना वे ही करते हैं, जो कि हवि का सेवन करते हैं । [२] हे प्रभो ! मैं (त्वा) = आपको (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ व सर्वैश्वर्यवाला [वेदस=धन] (मन्ये) = मानता हूँ । (सः) = वे आप (आनुषक्) = निरन्तर हव्या हव्य पदार्थों को वक्षि धारण करते हैं। हमारे लिये यज्ञ के साधनभूत सब पदार्थों को आप ही प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु सर्वज्ञ सर्वैश्वर्यवाले हैं। यज्ञशेष का सेवन करनेवाले लोग ही प्रभु के सच्चे उपासक हैं । इन हव्य पदार्थों को भी प्रभु ही तो प्राप्त कराते हैं ।
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