ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - प्राजापत्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
वि द्वेषां॑सीनु॒हि व॒र्धयेळां॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठवि । द्वेषां॑सि । इ॒नु॒हि । व॒र्धय॑ । इळा॑म् । मदे॑म । श॒तऽहि॑माः । सु॒ऽवीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि द्वेषांसीनुहि वर्धयेळां मदेम शतहिमाः सुवीराः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठवि। द्वेषांसि। इनुहि। वर्धय। इळाम्। मदेम। शतऽहिमाः। सुऽवीराः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 7
विषय - 'द्वेष शून्य-ज्ञान-प्रधान' जीवन
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! आप द्(वेषांसि वि इनुहि) = द्वेष की भावनाओं को हमारे से विदूर प्रेरित करिये । हमारे जीवनों को आप द्वेषशून्य बनाइये। इस द्वेषशून्यता की प्राप्ति के लिये (इडाम्) = इस वेदवाणी को (वर्धय) = बढ़ाइये। जितना जितना हमारा ज्ञान बढ़ेगा, उतना उतना हम द्वेष से ऊपर उठ सकेंगे। [२] इस प्रकार द्वेष से दूर होते हुए, ज्ञान प्रधान जीवन बिताते हुए हम (शतहिमा:) = शतवर्ष के दीर्घ-जीवनवाले होते हुए (मदेम) = आनन्द का अनुभव करें तथा (सुवीराः) = उत्तम वीर सन्तानोंवाले हों।
भावार्थ - भावार्थ- हम द्वेषशून्य ज्ञान-प्रधान होते हुए दीर्घ जीवन को प्राप्त करें और वीर सन्तानोंवाले हों। अगले सूक्त में 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' ही अग्नि नाम से प्रभु का स्मरण करते हैं -
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