ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यज॑स्व होतरिषि॒तो यजी॑या॒नग्ने॒ बाधो॑ म॒रुतां॒ न प्रयु॑क्ति। आ नो॑ मि॒त्रावरु॑णा॒ नास॑त्या॒ द्यावा॑ हो॒त्राय॑ पृथि॒वी व॑वृत्याः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयज॑स्व । हो॒तः॒ । इ॒षि॒तः । यजी॑यान् । अग्ने॑ । बाधः॑ । म॒रुता॑म् । न । प्रऽयु॑क्ति । आ । नः॒ । मि॒त्रावरु॑णा । नास॑त्या । द्यावा॑ । हो॒त्राय॑ । पृ॒थि॒वी इति॑ । व॒वृ॒त्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यजस्व होतरिषितो यजीयानग्ने बाधो मरुतां न प्रयुक्ति। आ नो मित्रावरुणा नासत्या द्यावा होत्राय पृथिवी ववृत्याः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयजस्व। होतः। इषितः। यजीयान्। अग्ने। बाधः। मरुताम्। न। प्रऽयुक्ति। आ। नः। मित्रावरुणा। नासत्या। द्यावा। होत्राय। पृथिवी इति। ववृत्याः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - 'यज्ञ-साधक वस्तुओं को प्राप्त करानेवाले' प्रभु
पदार्थ -
[१] हे (होत:) = [हु दाने] सब जीवन-यज्ञ के साधक पदार्थों को देनेवाले (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! आप (यजीयान्) = अतिशयेन पूज्य हैं। (इषितः) = हमारे से प्रार्थना किये गये आप [प्रेरित:- प्रार्थितः सा०] (न) = [संप्रति] अब प्रयुक्ति इस प्रयुज्यमान जीवन-यज्ञ में (मरुतां बाधः) = प्राणों के शत्रुबाधक गण को (यजस्व) = हमारे साथ संगत करिये। इस प्राणों के गण से ही हम सब अन्तः शत्रुओं पर विजय पा सकेंगे। 'प्राणायामैर्दहेद् दोषान्' । [२] (नः होत्राय) = हमारे इस जीवनयज्ञ के लिये (मित्रावरुणा) = स्नेह व निर्देषता के भावों को, (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानों को तथा (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्करूप द्युलोक व शरीररूप पृथिवी को (आववृत्याः) = [आवर्तय= आवह] प्राप्त कराइये। ये सब देव हमारे जीवन-यज्ञ को उत्तमता से सिद्ध करें ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु की उपासना करें। प्रभु हमें 'स्नेह-निर्देषता-प्राणापान की शक्ति, स्वस्थ मस्तिष्क व शरीर' प्राप्त कराके हमारे जीवन-यज्ञ को सम्यक् सिद्ध करेंगे।
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