ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अधा॑ मन्ये बृ॒हद॑सु॒र्य॑मस्य॒ यानि॑ दा॒धार॒ नकि॒रा मि॑नाति। दि॒वेदि॑वे॒ सूर्यो॑ दर्श॒तो भू॒द्वि सद्मा॑न्युर्वि॒या सु॒क्रतु॑र्धात् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । म॒न्ये॒ । बृ॒हत् । अ॒सु॒र्य॑म् । अ॒स्य॒ । यानि॑ । दा॒धार॑ । नकिः॑ । आ । मि॒ना॒ति॒ । दि॒वेऽदि॑वे । सूर्यः॑ । द॒र्श॒तः । भू॒त् । वि । सद्मा॑नि । उ॒र्वि॒या । सु॒ऽक्रतुः॑ । धा॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा मन्ये बृहदसुर्यमस्य यानि दाधार नकिरा मिनाति। दिवेदिवे सूर्यो दर्शतो भूद्वि सद्मान्युर्विया सुक्रतुर्धात् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअध। मन्ये। बृहत्। असुर्यम्। अस्य। यानि। दाधार। नकिः। आ। मिनाति। दिवेऽदिवे। सूर्यः। दर्शतः। भूत्। वि। सद्मानि। उर्विया। सुऽक्रतुः। धात् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
विषय - 'महान् लोकों के निर्माता' प्रभु
पदार्थ -
[१] (अधा) = अब (अस्य) = इस प्रभु के (बृहत् असुर्यम्) = महान् असुर वध के कर्म का (मन्ये) = स्तवन करता हूँ। (यानि दाधार) = प्रभु जिनका धारण करते हैं (नकि: आमिनाति) = इन्हें कोई हिंसित नहीं करता। [२] प्रभु का यह सर्वप्रथम महान् कर्म है कि (दिवेदिवे) = प्रतिदिन (सूर्यः) = सूर्य (दर्शतः भूत्) = दर्शनीय होता है। साथ ही प्रभु सुक्रतु उत्तम प्रज्ञान व कर्मोंवाले हैं और (उर्विया) = [उरूणि] विशाल (सद्मानि) = लोकों को (विधात्) = बनाता है। एक-एक लोक कितना विशाल है, प्रभु इन सब विशाल लोकों का वे प्रभु निर्माण करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु का असुरहनन रूप कर्म प्रशंसनीय है। प्रभु ही सूर्योदय को करते हैं, प्रभु ही इन विशाल लोकों का निर्माण करते हैं ।
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