ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 30/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒द्या चि॒न्नू चि॒त्तदपो॑ न॒दीनां॒ यदा॑भ्यो॒ अर॑दो गा॒तुमि॑न्द्र। नि पर्व॑ता अद्म॒सदो॒ न से॑दु॒स्त्वया॑ दृ॒ळ्हानि॑ सुक्रतो॒ रजां॑सि ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒द्य । चि॒त् । नु । चि॒त् । तत् । अपः॑ । न॒दीना॑म् । यत् । आ॒भ्यः॒ । अर॑दः । गा॒तुम् । इ॒न्द्र॒ । नि । पर्व॑ताः । अ॒द्म॒ऽसदः॑ । न । से॒दुः॒ । त्वया॑ । दृ॒ळ्हानि॑ । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । रजां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्या चिन्नू चित्तदपो नदीनां यदाभ्यो अरदो गातुमिन्द्र। नि पर्वता अद्मसदो न सेदुस्त्वया दृळ्हानि सुक्रतो रजांसि ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअद्य। चित्। नु। चित्। तत्। अपः। नदीनाम्। यत्। आभ्यः। अरदः। गातुम्। इन्द्र। नि। पर्वताः। अद्मऽसदः। न। सेदुः। त्वया। दृळ्हानि। सुक्रतो इति सुऽक्रतो। रजांसि ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
विषय - नदियों व पर्वतों का निर्माण
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = सब शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले प्रभो! (अद्या चित्) = आज भी (नू चित्) = निश्चय से आपका (तत्) = वह (नदीनां अपः) = नदियों सम्बन्धी कर्म अनुपक्षीण रूप से चल रहा है (यत्) = कि (आभ्यः) = इनके लिए आपने (गातुं अरदः) = जाने के मार्ग को बनाया है। 'नदियाँ सदा से चल रही हैं' यह आपका अद्भुत ही कर्म है। [२] (पर्वता:) = पर्वत (निसेदुः) = अपने स्थान पर ऐसे निषण्ण हैं कि (न) = जैसे (अद्मसदः) = भोजन खाने के लिये बैठनेवाले निश्चलभाव से स्थित होते हैं । हे सुक्रतो उत्तम प्रज्ञान व कर्मोंवाले प्रभो ! (त्वया) = आपके द्वारा (रजांसि) = सब लोक दृढानि दृढ़ व स्थिर किये गये हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ही नदियों के मार्ग को बनाते हैं। वे ही पर्वतों व लोकों को दृढ़ करते हैं ।
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