ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 35/ मन्त्र 2
कर्हि॑ स्वि॒त्तदि॑न्द्र॒ यन्नृभि॒र्नॄन्वी॒रैर्वी॒रान्नी॒ळया॑से॒ जया॒जीन्। त्रि॒धातु॒ गा अधि॑ जयासि॒ गोष्विन्द्र॑ द्यु॒म्नं स्व॑र्वद्धेह्य॒स्मे ॥२॥
स्वर सहित पद पाठकर्हि॑ । स्वि॒त् । तत् । इ॒न्द्र॒ । यत् । नृऽभिः॑ । नॄन् । वी॒रैः । वी॒रान् । नी॒ळया॑से । जय॑ । आ॒जीन् । त्रि॒ऽधातु॑ । गाः । अधि॑ । ज॒या॒सि॒ । गोषु॑ । इन्द्र॑ । द्यु॒म्नम् । स्वः॒ऽवत् । धे॒हि॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कर्हि स्वित्तदिन्द्र यन्नृभिर्नॄन्वीरैर्वीरान्नीळयासे जयाजीन्। त्रिधातु गा अधि जयासि गोष्विन्द्र द्युम्नं स्वर्वद्धेह्यस्मे ॥२॥
स्वर रहित पद पाठकर्हि। स्वित्। तत्। इन्द्र। यत्। नृऽभिः। नॄन्। वीरैः। वीरान्। नीळयासे। जय। आजीन्। त्रिऽधातु। गाः। अधि। जयासि। गोषु। इन्द्र। द्युम्नम्। स्वःऽवत्। धेहि। अस्मे इति ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 35; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
विषय - वीरता व ज्ञान
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (तत् कर्हि स्वित्) = वह कब होगा कि (यत्) = जब (नृभिः नृन्) = उन्नति-पथ पर चलनेवालों के साथ उन्नति-पथ पर चलनेवालों को तथा (वीरैः वीरान्) = शत्रु कम्पकों के साथ शत्रु कम्पकों को (नीडयासे) = आप हमारे घरों में स्थापित करते हो, आश्रय देते हो । अर्थात् वह समय कब होगा जब कि हमारे घरों में निरन्तर 'नर व वीर' ही पुरुषों का निवास होगा। और इन 'नर व वीर' पुरुषों के द्वारा आप हमारे लिये (आजीन् जय) = युद्धों को जीतिये । हम आपकी कृपा से संग्रामों में सदा विजयी बनें। [२] त्(रिधातु गाः अधिजयासि) = हमारे लिये आप 'ज्ञान, कर्म, उपासना' इन तीनों का धारण करनेवाली ज्ञान की वाणियों का विजय करें । हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप (अस्मे) = हमारे लिये (गोषु) = इन ज्ञान की वाणियों में (स्वर्वत्) = सुखों के देनेवाले (द्युम्नम्) = ज्ञान धन को धेहि धारण करिये ।
भावार्थ - भावार्थ– हे प्रभो! हमारे घरों में वीर पुरुष हों, वे सब ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाले हों। काम, क्रोध, लोभ के साथ होनेवाले संग्राम में विजयी हों ।
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