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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 72/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्रासोमौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रा॑सोमा वा॒सय॑थ उ॒षास॒मुत्सूर्यं॑ नयथो॒ ज्योति॑षा स॒ह। उप॒ द्यां स्क॒म्भथुः॒ स्कम्भ॑ने॒नाप्र॑थतं पृथि॒वीं मा॒तरं॒ वि ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑सोमा । वा॒सय॑थः । उ॒षस॑म् । उत् । सूर्य॑म् । न॒य॒थः॒ । ज्योति॑षा । स॒ह । उप॑ । द्याम् । स्क॒म्भथुः॑ । स्कम्भ॑नेन । अप्र॑थतम् । पृ॒थि॒वीम् । मा॒तर॑म् । वि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रासोमा वासयथ उषासमुत्सूर्यं नयथो ज्योतिषा सह। उप द्यां स्कम्भथुः स्कम्भनेनाप्रथतं पृथिवीं मातरं वि ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रासोमा। वासयथः। उषसम्। उत्। सूर्यम्। नयथः। ज्योतिषा। सह। उप। द्याम्। स्कम्भथुः। स्कम्भनेन। अप्रथतम्। पृथिवीम्। मातरम्। वि ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 72; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्रासोमा) = बल व सौम्यता के दिव्य भावो! आप (उषासं वासयथ:) = हमारे जीवनों के उषाकाल को उत्तमता से बिताते हो और (ज्योतिषा सह) = ज्योति के साथ (सूर्यम्) = ज्ञान सूर्य को (उत् नयथः) = उन्नत करने हो। [२] आप (द्याम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक को (स्कम्भनेन) = आधारभूत स्काम से (स्कम्भथुः) = थामने हो। शरीर में बल तथा हृदय में सौम्यता ये मिलकर मस्तिष्करूप द्युलोक के स्तम्भ बनते हैं। आप ही (मातरम्) = मातृ तुल्य (पृथिवीम्) = इस पृथिवी का (वि अप्रथतम्) = विशेषरूप से विस्तार करते हो । शरीर ही पृथिवी है। इन्द्र और सोम इस पृथिवी को विस्तृत शक्तिवाला बनाते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- बल व सौम्यता से जीवन का उषाकाल सुन्दरता से बीतता है। जीवन में ज्ञानसूर्य का उदय होता है। मस्तिष्क व शरीर दोनों का धारण होता है।

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