ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रासोमौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑सोमा॒वहि॑म॒पः प॑रि॒ष्ठां ह॒थो वृ॒त्रमनु॑ वां॒ द्यौर॑मन्यत। प्रार्णां॑स्यैरयतं न॒दीना॒मा स॑मु॒द्राणि॑ पप्रथुः पु॒रूणि॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑सोमौ । अहि॑म् । अ॒पः । प॒रि॒ऽस्थाम् । ह॒थः । वृ॒त्रम् । अनु॑ । वा॒म् । द्यौः । अ॒म॒न्य॒त॒ । प्र । अर्णां॑सि । ऐ॒र॒य॒त॒म् । न॒दीना॑म् । आ । स॒मु॒द्राणि॑ । प॒प्र॒थुः॒ । पु॒रूणि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रासोमावहिमपः परिष्ठां हथो वृत्रमनु वां द्यौरमन्यत। प्रार्णांस्यैरयतं नदीनामा समुद्राणि पप्रथुः पुरूणि ॥३॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रासोमौ। अहिम्। अपः। परिऽस्थाम्। हथः। वृत्रम्। अनु। वाम्। द्यौः। अमन्यत। प्र। अर्णांसि। ऐरयतम्। नदीनाम्। आ। समुद्राणि। पप्रथुः। पुरूणि ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
विषय - समुद्र-प्रथन
पदार्थ -
[१] (अप: परिष्ठाम्) = रेतः कण रूप जलों को घेरकर स्थित होनेवाली (अहिम्) = [आहन्तारं] विनाशक (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को, हे (इन्द्रासोमा) = बल व सौम्यता के भावो! आप (हथः) = विनष्ट करते हो । (वाम्) = आपके (अनु) = अनुसार (द्यौः) = मस्तिष्क रूप द्युलोक (अमन्यत) = मनन करनेवाला होता है, ज्ञानदीप्ति से दीप्त होता है। [२] आप ही (नदीनाम्) = ज्ञान की नदियों के (अर्णांसि) = ज्ञान जलों को (प्रऐरयतम्) = प्रकर्षेण प्रेरित करते हो। और हमारे जीवनों में (पुरूणि) = महान् (समुद्राणि) = ज्ञान समुद्रों को आप (प्रथः) = विस्तृत करते हो 'सरस्वती' के ज्ञानजल के प्रवाह इन्द्र सोम के द्वारा ही प्रवाहित होते हैं और ज्ञान-समुद्र का उद्भव होता है।
भावार्थ - भावार्थ- बल व सौम्यता के भावों का आराधन [क] वासना को विनष्ट करता है, [ख] ज्ञान की वृद्धि करता है, [ग] ज्ञान जलों को प्रवाहित कर हमारे जीवनों में ज्ञान समुद्र का उद्भव करता है।
इस भाष्य को एडिट करें