ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 103/ मन्त्र 9
दे॒वहि॑तिं जुगुपुर्द्वाद॒शस्य॑ ऋ॒तुं नरो॒ न प्र मि॑नन्त्ये॒ते । सं॒व॒त्स॒रे प्रा॒वृष्याग॑तायां त॒प्ता घ॒र्मा अ॑श्नुवते विस॒र्गम् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वऽहि॑तिम् । जु॒गु॒पुः॒ । द्वा॒द॒शस्य॑ । ऋ॒तुम् । नरः॑ । न । प्र । मि॒न॒न्ति॒ । ए॒ते । स॒व्ँम्व॒त्स॒रे । प्रा॒वृषि॑ । आऽग॑तायाम् । त॒प्ताः । घ॒र्माः । अ॒श्नु॒व॒ते॒ । वि॒ऽस॒र्गम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवहितिं जुगुपुर्द्वादशस्य ऋतुं नरो न प्र मिनन्त्येते । संवत्सरे प्रावृष्यागतायां तप्ता घर्मा अश्नुवते विसर्गम् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवऽहितिम् । जुगुपुः । द्वादशस्य । ऋतुम् । नरः । न । प्र । मिनन्ति । एते । सव्ँम्वत्सरे । प्रावृषि । आऽगतायाम् । तप्ताः । घर्माः । अश्नुवते । विऽसर्गम् ॥ ७.१०३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 103; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
विषय - वेद की रक्षा
पदार्थ -
पदार्थ- (संवत्सरे) = वर्ष में (तप्ताः घर्मा:) = तपे घाम अर्थात् सूर्य के तेज (प्रावृषि आगतायां) = वर्षाकाल आने पर (विसर्गम् अश्नुवते) = विविध प्रकार से जलों को व्याप लेते हैं, मेघ रूप से प्रकट करते हैं, वे (द्वादशस्य) = बारह मास के बने वर्ष के (देव-हितिं) = जलप्रद मेघ की (जुगुपुः) = रक्षा करते और (नरः) = नायक वायुगण (ऋतं न प्रमिनन्ति) = वर्षा ऋतु को नष्ट नहीं होने देते वैसे ही (संवत्सरे) = एक वर्ष में (प्रावृषि आगतायाम्) = वर्षा के आने पर (तप्ता:) = तप से संतप्त, (घर्मा:) = तेजस्वी पुरुष भी (विसर्गम् अश्नुवते) = विविध अध्याय, काण्डादि से युक्त वेद का अभ्यास करते हैं। वे (द्वादशस्य) = बारहों मास (देव-हितिं जुगुषुः) = परमेश्वरदत्त ज्ञान की रक्षा करते हैं और (एते) = वे (नरः) = उत्तम पुरुष (ऋतुं न प्र मिनन्ति) = 'ऋतु' अर्थात् ज्ञानयुक्त वेद को वैसे ही नष्ट नहीं होने देते जैसे नर-जीव अपने जातिवर्ग में ऋतु का व्यर्थ नाश नहीं होने देते।
भावार्थ - भावार्थ- तेजस्वी विद्वान् व ब्रह्मचारीगण विविध अध्याय, काण्ड आदि से युक्त वेद का अभ्यास वर्षभर किया करें। इस प्रकार ईश्वरप्रदत्त वेद ज्ञान की रक्षा निरन्तर करते रहें। उत्तम विद्वान् पुरुष कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी ईश्वर की ज्ञानमयी वेदवाणी को नष्ट नहीं होने दें।
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