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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    स॒मिधा॑ जा॒तवे॑दसे दे॒वाय॑ दे॒वहू॑तिभिः। ह॒विर्भिः॑ शु॒क्रशो॑चिषे नम॒स्विनो॑ व॒यं दा॑शेमा॒ग्नये॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽइधा॑ । जा॒तऽवे॑दसे । दे॒वाय॑ । दे॒वऽहू॑तिभिः । ह॒विःऽभिः॑ । शु॒क्रऽशो॑चिषे । न॒म॒स्विनः॑ । व॒यम् । दा॒शे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिधा जातवेदसे देवाय देवहूतिभिः। हविर्भिः शुक्रशोचिषे नमस्विनो वयं दाशेमाग्नये ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽइधा। जातऽवेदसे। देवाय। देवऽहूतिभिः। हविःऽभिः। शुक्रऽशोचिषे। नमस्विनः। वयम्। दाशेम। अग्नये ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (नमस्विनः) = नमनवाले होते हुए (वयम्) = हम (अग्नये) = उस अग्रेणी प्रभु के लिये (दाशेम) = अपने को दे डालें। 'भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम' = नमन के द्वारा ही तो प्रभु का पूजन होता है। हम उस (जातवेदसे) = सर्वज्ञ प्रभु के लिये (समिधा) = ज्ञानदीप्ति के हेतु से अपने को अर्पित करनेवाले हों। प्रभु ही तो सब प्रकाश प्राप्त कराते हैं। [२] (देवाय) = उस दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु के लिये (देवहूतिभि:) = दिव्य गुणों की पुकारों से, दिव्य गुणों को प्राप्त करने के लिये आराधनाओं से हम अपने को अर्पित करें तथा (शुक्रशोचिषे) = उस दीप्त ज्ञान-ज्योतिवाले प्रभु के लिये (हविभिः) = हवियों के द्वारा त्यागपूर्वक अदन के द्वारा हम अपना अर्पण करें। हवि का सेवन करते हुए हम भी 'शुक्रशोचि' बनेंगे।

    भावार्थ - भावार्थ-प्रभु 'जातवेदस्-देव-शुक्रशोचि व अग्नि' हैं। हम 'ज्ञान- दीप्ति, देवहूति, हवि व नमन्' के द्वारा उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें।

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