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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    व॒यं ते॑ अग्ने स॒मिधा॑ विधेम व॒यं दा॑शेम सुष्टु॒ती य॑जत्र। व॒यं घृ॒तेना॑ध्वरस्य होतर्व॒यं दे॑व ह॒विषा॑ भद्रशोचे ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइधा॑ । वि॒धे॒म॒ । व॒यम् । दा॒शे॒म॒ । सु॒ऽस्तु॒ती । य॒ज॒त्र॒ । व॒यम् । घृ॒तेन॑ । अ॒ध्व॒र॒स्य॒ । हो॒तः॒ । व॒यम् । दे॒व॒ । ह॒विषा॑ । भ॒द्र॒ऽशो॒चे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं ते अग्ने समिधा विधेम वयं दाशेम सुष्टुती यजत्र। वयं घृतेनाध्वरस्य होतर्वयं देव हविषा भद्रशोचे ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम्। ते। अग्ने। सम्ऽइधा। विधेम। वयम्। दाशेम। सुऽस्तुती। यजत्र। वयम्। घृतेन। अध्वरस्य। होतः। वयम्। देव। हविषा। भद्रऽशोचे ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे (अग्ने) = प्रकाशस्वरूप प्रभो ! (वयम्) = हम (समिधा) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा, स्वाध्याय द्वारा ज्ञान को बढ़ाते हुए, (ते) = आपका (विधेम) = पूजन करें। हे (यजत्र) = पूजनीय प्रभो ! (वयम्) = हम (सुष्टुती) = उत्तम स्तुति के द्वारा (दशेम) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले बनें। [२] हे (अध्वरस्य होत:) = इस जीवनयज्ञ के होता [प्रवर्तक] प्रभो! (वयम्) = हम (घृतेन) = [घृ क्षरणे] मलों के क्षरण के द्वारा- नैर्मल्य की दीति को प्राप्त करने के द्वारा आपके प्रति अपना अर्पण करें। हे (देव) = प्रकाशमय ! (भद्रशोचे) = कल्याणकर दीप्तिवाले प्रभो! (वयम्) = हम (हविषा) = हवि के द्वारा, त्यागपूर्वक अदन के द्वारा आपके प्रति अपना अर्पण करें।

    भावार्थ - भावार्थ- हम 'ज्ञानदीप्ति, उत्तम स्तुति, मलक्षरण द्वारा नैर्मल्य प्राप्ति तथा दानपूर्वक के द्वारा प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें।

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