ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 25
इ॒मं न॑रो मरुतः सश्च॒तानु॒ दिवो॑दासं॒ न पि॒तरं॑ सु॒दासः॑। अ॒वि॒ष्टना॑ पैजव॒नस्य॒ केतं॑ दू॒णाशं॑ क्ष॒त्रम॒जरं॑ दुवो॒यु ॥२५॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । न॒रः॒ । म॒रु॒तः॒ । स॒श्च॒त॒ । अनु॑ । दिवः॑ऽदासम् । न । पि॒तर॑म् । सु॒ऽदासः॑ । अ॒वि॒ष्टन॑ । पै॒ज॒ऽव॒नस्य॑ । केत॑म् । दुः॒ऽनाश॑म् । क्ष॒त्रम् । अ॒जर॑म् । दु॒वः॒ऽयु ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं नरो मरुतः सश्चतानु दिवोदासं न पितरं सुदासः। अविष्टना पैजवनस्य केतं दूणाशं क्षत्रमजरं दुवोयु ॥२५॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। नरः। मरुतः। सश्चत। अनु। दिवःऽदासम्। न। पितरम्। सुऽदासः। अविष्टन। पैजऽवनस्य। केतम्। दुःऽनाशम्। क्षत्रम्। अजरम्। दुवःऽयु ॥२५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 25
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
विषय - प्राणों द्वारा प्रभु की उपासना
पदार्थ -
[१] हे (नरः) = मुझे उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले (मरुतः) = मेरे प्राणो! (इमम्) = इस (दिवोदासम्) = ज्ञान के देनेवाले के समान, (सुदासः पितरम्) = सम्यक् शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले उपासक के रक्षक प्रभु को (अनुसश्चात) = प्रतिदिन सेवित करो। मेरे प्राण चित्तवृत्ति के निरोध के द्वारा प्रभु का ध्यान करनेवाले हों। [२] हे प्राणो! आप (पैजवनस्य) = स्वाभाविक वेगवाले-वेग के (पुञ्ज) = प्रभु के (केतम्) = ज्ञान का अविष्टन रक्षण करो। प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञान को मेरे में ये प्राण सुरक्षित करें। प्राणायाम से दग्ध दोष निर्मल हृदय में प्रभु का संकेत [प्रेरण] सुनाई पड़ता है। इस प्रकार होने पर इस उपासक का (क्षेत्रम्) = बल (दूणाशम्) = सब बुराइयों को नष्ट करनेवाला, (अजरम्) = कभी न जीर्ण होनेवाला व (दुवोयु) = प्रभु की परिचर्या की कामनावाला होता है। अपनी शक्ति से मानव की सेवा करना ही प्रभु की परिचर्या है। एवं, उपासक अपने बल के द्वारा रक्षणात्मक कार्यों में ही प्रवृत्त होता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्राणायाम करते हुए चित्तवृत्ति का निरोध करके प्रभु का उपासन करें। प्रभु के संकेत को समझें। हमारा बल न जीर्ण होनेवाला हो व लोकहित में विनियुक्त हो । अगले सूक्त के भी ऋषि देवता 'वसिष्ठ व इन्द्र' ही है-
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